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मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ
बताकर भक्त और भगवान के बीच गुणात्मक सम्बन्ध जोड़ा। जन्म के स्थान पर कर्म को प्रतिष्ठित कर गरीबों, दलितों और असहायों को उच्च आध्यात्मिक स्थिति प्राप्त करने की कला सिखायी। अपने साधना काल में कठोर अभिग्रह धारण कर दासी बनी, हथकड़ी और बेड़ियों में जकड़ी, तीन दिन से भूखी, मुण्डित केश राजकुमारी चन्दना से आहार ग्रहण कर, उच्च क्षत्रिय राजकुल की महारानियों के मुकाबले समाज में निकृष्ट समझो जाने वाली नारी शक्ति की आध्यात्मिक गरिमा और महिमा प्रतिष्ठापित की। जातिवाद और वर्णवाद के खिलाफ छेड़ी गयी यह सामाजिक क्रान्ति भारतीय जनतन्त्र की सामाजिक समानता का मुख्य आधार बनी है। यह तथ्य पश्चिम के सभ्य कहलाने वाले तथाकथित जनतान्त्रिक देशों की रंगभेद नीति के विरुद्ध एक चुनौती है।
महावीर दूरद्रष्टा विचारक और अनन्तज्ञानी साधक थे। उन्होंने अनुभव किया कि आर्थिक समानता के बिना सामाजिक समानता अधिक समय तक कायम नहीं रह सकती और राजनैतिक स्वाधीनता भी आर्थिक स्वाधीनता के अभाव में कल्याणकारी नहीं बनती। इसलिए महावीर का सारा बल अपरिग्रह भावना पर रहा। एक ओर उन्होंने एक ऐसी साधु संस्था खड़ी की जिसके पास रहने को अपना कोई आगार नहीं। कल के खाने की आज कोई निश्चित व्यवस्था नहीं, सुरक्षा के लिए जिसके पास कोई साधन-संग्रह नहीं, जो अनगार है, भिक्षु है, पादविहारी है, निर्ग्रन्थ है, श्रमण है, अपनी श्रम साधना पर जीता है और दूसरों के कल्याण के लिए समर्पित हैं, उसका सारा जीवन जिसे समाज से कुछ लेना नहीं, देना ही देना है । दूसरी और उन्होंने उपासक संस्था-श्रावक संस्था खड़ी की जिसके परिग्रह की मर्यादा है, जो अणुव्रती है।
श्रावक के बारह व्रतों पर जब हम चिंतन करते हैं तो लगता है कि अहिंसा के समानान्तर ही परिग्रह की मर्यादा और नियमन का विचार चला है। गृहस्थ के लिए महावीर यह नहीं कहते कि तुम संग्रह न करो। उनका बल इस बात पर है कि आवश्यकता से अधिक संग्रह मत करो। और जो संग्रह करो उस पर स्वामित्व की भावना मत रखो। पाश्चात्य जनतान्त्रिक देशों में स्वामित्व को नकारा नहीं गया है। वहाँ सम्पत्ति को एक स्वामी से छीन कर दूसरे को स्वामी बना देने पर बल है। इस व्यवस्था में ममता छूटती नहीं, स्वामित्व बना रहता है और जब तक स्वामित्व का भाव है-संघर्ष है, वर्गमेद है। वर्गविहीन समाज रचना के लिए स्वामित्व का विसर्जन जरूरी है । महावीर ने इसलिए परिग्रह को सम्पत्ति नहीं कहा, उसे मूर्छा या ममत्व माव कहा है। साधु तो नितान्त अपरिग्रही होता ही है, गृहस्थ भी धीरे-धीरे उस ओर बढ़े, यह अपेक्षा है । इसीलिए महावीर ने श्रावक के बारह व्रतों में जो व्यवस्था दी है वह एक प्रकार से स्वैच्छिक स्वामित्वबिसर्जन और परिग्रह मर्यादा, सीलिंग की व्यवस्था है। आर्थिक विषमता के उन्मूलन के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति के उपार्जन के स्रोत और उपभोग के लक्ष्य मर्यादित और निश्चित हों । बारह व्रतों में तीसरा अस्तेय व्रत इस बात पर बल देता है कि चोरी करना ही वजित नहीं है, बल्कि चोर द्वारा चुराई हुई वस्तु को लेना, चोर को प्रेरणा करना, उसे किसी प्रकार की सहायता करना, राज्य नियमों के विरुद्ध प्रवृत्ति करना, झूठा नाप-तौल करना, झूठा दस्तावेज लिखना, झूठी साक्षी देना, वस्तुओं में मिलावट करना, अच्छी वस्तु दिखाकर घटिया दे देना आदि सब पाप हैं। आज की बढ़ती हुई चोर-बाजारी, टेक्स चोरी, खाद्य पदार्थों में मिलावट की प्रवृत्ति आदि सब महावीर की दृष्टि से व्यक्ति को पाप की ओर ले जाते हैं और समाज में आर्थिक विषमता के कारण बनते हैं। इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए पांचवें व्रत में उन्होंने खेत, मकान, सोना-चांदी आदि जेवरात, धन धान्य, पशु-पक्षी, जमीन-जायदाद आदि को मर्यादित, आज की शब्दावली में इनका सीलिंग करने पर जोर दिया है और इच्छाओं को उत्तरोत्तर नियन्त्रित करने की बात कही है। छठे व्रत में व्यापार करने के क्षेत्र को सीमित करने का विधान है। क्षेत्र और दिशा का परिमाण करने से न
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