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२७० मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ अनुरोध होता है वहीं वे वर्षाकाल के ४ माह ठहरते हैं। उनका जीवन बहुत संयमी होने से वे बहुत सा समय पठन-पाठन ग्रंथ रचने व लिखने में लगाते रहे हैं। इसलिए एक ही कवि की एक रचना राजस्थान में हुई है, तो दूसरी गुजरात में और तीसरी मालवा में, अत: यह नहीं कहा जा सकता कि वे अमुक प्रांत के कवि हैं । बहुत से साधु-साध्वियों का जन्म एवं दीक्षा तो मालवा में हुई पर उनका विहार क्षेत्र-राजस्थान, गुजरात में ही अधिक रहा । १९वीं शताब्दी में विशिष्ट परिस्थितियों के कारण कुछ जैन यति स्थायी रूप से या अधिकांश रूप से एक स्थान पर अपना उपासरा बनाकर रहने लगे। अब उन यतियों के अधिकांश उपासरे खाली पड़े हैं, अर्थात् उनके शिष्य-प्रशिष्य की संतति नहीं रही। हां यह अवश्य सम्भव है कि वहां उनके ग्रन्थ भण्डार अभी तक पड़े हों। पर मालवा के ऐसे यतिजनों के ग्रन्थ भण्डारों की अभी तक खोज ही नहीं हुई । अतः मालवा प्रदेश में रचित जैन साहित्य की बहुत ही कम जानकारी प्रकाश में आयी है।
दिगम्बर सम्प्रदाय में साधु-साध्वी तो बहुत ही कम रहे पर श्रावकों में स्वाध्याय का क्रम बराबर चलता रहा। इसलिए जहां-जहाँ भी दिगम्बर जैन मन्दिर हैं वहां थोड़ेबहुत हस्तलिखित शास्त्र अवश्य ही मिलेंगे। उनकी भी खोज की जानी आवश्यक है।
प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी और गुजराती इन पांचों भाषाओं में मालवा प्रदेश में काफी जैन साहित्य रचा गया है । अत: एक-एक भाषा के साहित्य की स्वतंत्र रूप से खोज की जानी आवश्यक है। दिगम्बर, श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों और श्वेताम्बर सम्प्रदाय के स्थानकवासी सम्प्रदाय का भी मालवा प्रदेश में गांव-गांव में निवास है। बहुत से ग्रन्थकारों ने अपने ग्रन्थों की अंतिम प्रशस्तियों में ग्राम नगरों के नाम दिये हैं पर उनमें प्रदेश का उल्लेख नहीं मिला। अत: वे ग्राम किस प्रदेश के हैं, यह ठीक से नहीं कहा जा सकता । क्योंकि एक ही नाम वाले कई ग्राम नगर भिन्न-भिन्न प्रदेशों में भी पाये जाते हैं । अतः प्रस्तुत लेख में मालव प्रदेश के जिन-जिन स्थानों के रचित साहित्य की निश्चित जानकारी मिली हैं उन्हीं का विवरण दिया जायगा।
प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी और दिगम्बर साहित्य की चर्चा इस लेख में नहीं की जा रही है। क्योंकि इसकी खोज में काफी समय व श्रम अपेक्षित है । अत: केवल श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के उन कवियों की रचनाओं का ही विवरण इस लेख में देना सम्भव होगा कि जिन्होंने मालव प्रदेश के किसी ग्राम नगर में रचे जाने का स्पष्ट उल्लेख अपनी रचनाओं में किया है।
यहाँ एक और भी स्पष्टीकरण कर देना आवश्यक समझता हूँ कि मालव प्रदेश की बोली साधारण-सी भिन्नता रहते हुए भी राजस्थानी ही रही है । प्राचीनकाल में तो बहुत व्यापक प्रदेश की भाषा एक प्राकृत ही रही। फिर उसमें से अपभ्रंश का विकास हुआ। पर उसमें भी प्रान्तीय भेद, कम से कम साहित्यिक रचनाओं में तो अधिक स्पष्ट नहीं है। इसी तरह अपभ्रंश से जिन प्रान्तीय भाषाओं का विकास हुआ उनमें भी पहले अधिक अन्तर नहीं था। क्रमशः वह अन्तर ज्यों-ज्यों अधिक स्पष्ट
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