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भारतीय तत्व चिन्तन में जड़-चेतन का सम्बन्ध २६३ भौतिक तत्त्व या भूत ही मौलिक तत्त्व है या मूल तत्व है। भूत-तत्त्व से भिन्न चेतन का कोई अस्तित्व नहीं है।
बौद्ध दर्शन नाम और रूप अथवा विज्ञान को ही जगत का मूल कारण मानता है। उसके विचार में कोई भी पदार्थ - भले ही वह चेतन हो या जड़, स्थायी नहीं है, नित्य नहीं है । जगत में जो कुछ है, वह सब क्षणिक है, अनित्य है। उनकी व्याख्या के अनुसार सत् वही है, जो क्षणिक है, और सरिता के प्रवाहवत् प्रतिक्षण परिवर्तित होते हुए प्रवहमान रहता है ।
जैनदर्शन
जैन - परम्परा में श्रमण भगवान महावीर के पूर्व और भगवान महावीर तथा उनके अनन्तर आचार्यों ने जगत में मुख्य रूप से दो राशि, दो तत्त्व, दो पदार्थ, या दो द्रव्य माने हैं— जीव और
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अजीव आत्मा और पुद्गल अथवा जड़ और चेतन जैन दर्शन जगत को माया रूप एवं मिथ्या नहीं मानता । वह तो उसे उतना ही सत्य मानता है, जितना आत्मा-परमात्मा के अस्तित्व को । उसके विचार में सभी द्रव्य सत् हैं । सत् वह है, जो न तो एकान्त रूप नित्य या कूटस्थ नित्य है, और न एकान्त रूप से अनित्य क्षणिक है। वस्तुतः जो उत्पाद, व्यय और प्रोग्य से युक्त है, वह सत् है ।
द्रव्य की परिभाषा हो यह है, कि अपने मूल स्वरूप में अथवा द्रव्यरूप में स्थित रहते हुए द्रवित होते रहना अपनी पर्यायों में परिणमन करते रहना। क्योंकि वह गुण और पर्याय से युक्त होता है और वह गुण एवं पर्यायों से अभिन्न भी है। क्योंकि गुण और पर्यायें सदा गुणों एवं द्रव्य में ही रहती है । गुण एवं पर्याय से शून्य द्रव्य और द्रव्य से रहित गुण-पर्याय की कल्पना ही नहीं की जा सकती । ज्ञान आत्मा का गुण है और शुद्ध एवं अशुद्ध या सम्यक् एवं मिथ्या या क्षायोपशमिक एवं क्षायिक आदि ये ज्ञान को पर्यायें हैं । लोक में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है, जो ज्ञान से सर्वथा रहित हो, और उसमें शुद्ध या अशुद्ध, सम्यक् या मिय्या, क्षायोपशमिक या क्षायिक ज्ञान की कोई भी पर्याय न हो। पर्यायें प्रतिक्षण बदलती रहती हैं, परन्तु पर्यायों के बदलने पर भी द्रव्य का मूल स्वरूप कभी नहीं बदलता ज्ञान आत्मा का स्वभाव है, उसका निज गुण है। वह नित्य है, सदा रहेगा ही - भले ही वह सम्यक् रहे या मिथ्या रहे। हम प्रतिदिन देखते हैं कि नदी के प्रवाह में प्रवहमान जल कण अपने स्थान से आगे की ओर बह जाते हैं और नये जल कण उसका स्थान ले लेते हैं, परन्तु नदीत्व — जो नदी का स्वभाव है, वह प्रवाह में भी सदा बना रहता है । इसलिए द्रव्य की अपेक्षा से पदार्थ नित्य है, और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य इस प्रकार जैन दर्शन जगत को परिणामी नित्य मानता है वह न उसे कूटस्य नित्य मानता है, क्षणिक ही ।
और न एकान्त
जैन दर्शन का यह दृढ़ विश्वास है, कि जगत अनादि अनन्त है । इसे न किसी ने बनाया है और न कोई इसे बना सकता है, यह तो स्वभाव से है । यह न तो प्रजापति की रचना है, न ब्रह्मा का बनाया हुआ है, और न ब्रह्म का विवत्तं ही है। जीव और अजीव अथवा आत्मा और पुद्गल के संयोग सम्बन्ध का परिणाम है दोनों द्रव्यों का संयोग सम्बन्ध संसार है, और आत्मा से पुद्गलों का वियोग हो जाना ही मोक्ष है । इसलिए संसार एवं जगत में दो ही तत्त्वों की मुख्यता है।
जड़-चेतन का बन्ध
आत्मा और पुद्गल दोनों स्वतन्त्र तत्व है, स्वतन्त्र द्रव्य हैं। फिर दोनों में बन्ध कम, क्यों और कैसे हुआ ? इस सम्बन्ध में वेदों में कोई उल्लेख नहीं मिलता। परन्तु आर्यों के आगमन के पूर्व अथवा वेदों की रचना के पूर्व भारत में अवैदिक चिन्तन की धारा प्रवहमान थी । उस समय उसका नाम श्रमण, मुनि या निर्ग्रन्थ- परम्परा या कुछ और भी रहा हो, पर आज वह जैन
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