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मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ
सत्य मानता है परन्तु वह उसे ब्रह्म से उद्भूत नहीं मानता। उपनिषद् के अनुसार जगत ब्रह्म से उत्पन्न हुआ है और पुनः ब्रह्म में ही समाहित हो जाता है । जिस प्रकार मकड़ी जाले को बनाती है, और पुनः उसे निगल जाती है। जैसे पृथ्वी से औषधियां उत्पन्न होती हैं, सजीव पुरुष से केश-लोम उत्पन्न होते है, उसी प्रकार अक्षर-ब्रह्म से यह जगत उत्पन्न होता है। जैसे निरन्तर प्रवहमान सरिताएं अपने नाम-रूप का परित्याग करके समुद्र की अनन्त जलराशि में विलीन हो जाती हैं, वैसे ही विद्वान लोग अपने नाम-रूप से मुक्त होकर परात्पर दिव्य-पुरुष अथवा पर-ब्रह्म को प्राप्त हो जाते हैं।
उपनिषद की मान्यता के अनुसार ब्रह्म जगत का अभिन्ननिमित्तोपादान कारण है। दर्शनशास्त्र में कार्य-कारण भाव दो प्रकार का है-भिन्ननिमित्तोपादान कारण और अभिन्ननिमित्तोपादान कारण । जैसे घट कार्य की उत्पत्ति में मिट्टी उपादान कारण है और कुम्भकार आदि निमित्त कारण हैं और दोनों कारण एक-दूसरे से भिन्न हैं। परन्तु जगत की उत्पत्ति में निमित्त कारण भी ब्रह्म है और उपादान कारण भी ब्रह्म है, इसलिए इसे अभिन्ननिमित्तोपादान कारण कहा है। सांख्य-योग और न्याय-वैशेषिक-दर्शन
ये चारों दर्शन वैदिक-दर्शन हैं। फिर भी वे परमात्मा और ब्रह्म को जगत का कारण नहीं मानते । वे आचार्य शंकर की तरह जगत को माया रूप, भ्रान्त, असत्य, मिथ्या और ब्रह्म का विवर्त भी नहीं मानते। सांख्य-दर्शन जगत में मूल तत्त्व दो मानता है-पुरुष और प्रकृति । पुरुष चेतन है, कूटस्थ है, अपरिणामी है, अकर्ता है और शुद्ध है। प्रकृति जड़ है, क्षणिक है, परिणामी है, कर्ता है, भोक्ता है और विकारों से युक्त है। जगतरूप कार्य का कारण पुरुष नहीं, प्रकृति है । पुरुष प्रकृति के संयोग से अथवा प्रकृति से सम्बद्ध होने के कारण जगत में परिभ्रमण करता है, परन्तु बन्ध और मोक्ष प्रकृति में ही होता है, पुरुष में नहीं; क्योंकि वह तो स्वभाव से ही मुक्त है। जगत के सम्बन्ध में यही विचार योग दर्शन के हैं।
न्याय-वैशेषिक-दर्शन परमाणुवादी है । वह जगत में जड़ और चेतन-दोनों को मूल तत्त्व मानता है, फिर भी आत्मा को कूटस्थ नित्य मानता है। उसकी मान्यता के अनुसार गुण द्रव्य से भिन्न हैं, वे द्रव्य में समवाय सम्बन्ध से रहते हैं। इसलिए उनमें होने वाले परिणमन से आत्मा में विकृति नहीं आती। वह पृथ्वी, जल, अग्नि एवं वायु आदि के परमाणुओं को पृथक-पृथक मानता है और उनसे ही जगत एव जगत के पदार्थों की उत्पत्ति मानता है। जगत का उपादान कारण पृथ्वी आदि के अपने-अपने परमाणु हैं । जैसे-घट का उपादान कारण मिट्टी के परमाणु हैं और सरिता का उपादान कारण जल के परमाणु । जैन-दर्शन भी परमाणुवाद को मानता है, परन्तु वह मिट्री, जल, अग्नि, वायु आदि के परमाणुओं को भिन्न-भिन्न नहीं मानता। जैसा संयोग मिलता है उसी के अनुरूप परमाणु बन जाते हैं । मिट्टी के परमाणु कालान्तर में जल के प्रवाह में पानी का रूप ले लेते हैं और पानी के परमाणु कालान्तर में मिट्टी का रूप ले लेते है। वैज्ञानिक भी परमाणु की परिवर्तित होती हुई स्थिति को स्वीकार करते हैं। अवैदिक-दर्शन - चार्वाक-दर्शन, बौद्ध-दर्शन और जैन-दर्शन-ये तीनों दर्शन अवैदिक है। तीनों वेद-प्रामाण्य को स्वीकार नहीं करते, वेदों की प्रामाणिकता में विश्वास नहीं रखते । इनमें चार्वाक-दर्शन एकान्त भौतिकवादी है। वह जगत की उत्पत्ति भूतों से मानता है। उसके विचार से जगत में एक मात्र
१ मुण्डक उपनिषद्, १, १, ७ और ३, २, ८ ।
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