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fear अभिनन्दन ग्रन्थ
ज्ञान ज्ञानी से भिन्न नहीं, अभिन्न है
प्रायः सभी आस्तिक दर्शन किसी न किसी रूप में ज्ञान की महत्ता को निःसंकोच स्वीकार करते हैं । परन्तु ज्ञान के मूल मेद और अवान्तर भेद कितने हैं ? इन्द्रियजन्य ज्ञान और अनिन्द्रियजन्य ज्ञान कौनसा है ? कौनसा ज्ञान किन-किन विषयों का साक्षात्कार कराता है ? ब्रह्म (केवल ) ज्ञान की क्या परिभाषा, क्या विशेषता है ? यह कब और किनको होता है ? उक्त प्रश्नों का उचित समाधान विश्व के समस्त दर्शनों की अपेक्षा केवल जैनदर्शन ही प्रस्तुत करने में सक्षम है।
भगवान महावीर ने कहा है--जो ज्ञाता है, वह आत्मा है और जो आत्मा है वह ज्ञाता है । ' ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक गुण है । दृश्यमान और अदृश्यमान संसार उसका ज्ञेय विषय है । ज्ञान और ज्ञेय दोनों ज्ञानी से कभी दूर नहीं होते हैं । कदाच् ज्ञेय दूर होने पर भी ज्ञानी आत्मा उसे जान लेती है; क्योंकि आत्मा ज्ञाता और द्रष्टा है।" मले आत्मा घनीभूत कर्मावरण से आवृत हो या फिर निगोद जैसी निम्न स्तरीय योनि में पहुंच गई हो तथापि आत्मा का उपयोग (चेतना) गुण न पूर्ण रूप से नष्ट होता है और न पूर्णरूपेण आवृत ही जिस प्रकार भले कितने भी सपन बादल आकाश मण्डल में छा जायें, फिर भी सूर्य के प्रकाश का दिवस सूचक आलोक बिल्कुल विलुप्त न होकर स्वल्पांश में भी सुला रहता है। इसी प्रकार आत्मा का विशिष्ट ज्ञान गुण कभी भी आत्मा से विलय नहीं होता है। यदि ऐसा मान लिया जाय तो फिर जीव जड़त्व गुण में परिणत हो जायगा। सभी शास्वत द्रव्य अपने-अपने स्वभाव गुण से भ्रष्ट हो जायेंगे। संसार में शाश्वत धर्म वाला कोई द्रव्य नहीं रहेगा; परन्तु ऐसा कभी हुआ नहीं है । यह ध्रुव सिद्धान्त है कि -द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा सभी द्रव्य नित्य और शाश्वत हैं। पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा सभी द्रव्य अनित्य और अशाश्वत माने है। अनादिकाल से सभी द्रव्य इसी क्रमानुसार अपने-अपने गुण पर्यायों में परिणमन करते रहते हैं।
ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग ये जीवात्मा के लक्षण है। ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग की दृष्टि से उपयोग दो प्रकार का माना है । अर्हन्त दर्शन में ज्ञानोपयोग के पाँच भेद इस प्रकार बताये हैं
मतिज्ञान
१
२
श्रुतज्ञान
अवधिज्ञान
मनः पर्यवज्ञान
केवलज्ञान । *
जे विन्नाय से आया, जे आया से विन्नाया
(a) There is Power of Knowledge in my self. (b) I know every thing by my power of knowledge.
३ (क) नाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा । वीरियं उवओगो य, एयं जीवस्स लक्षणं ॥ (ख) उपयोगो लक्षणम् (उपयोगवत्वं जीवस्स लक्षणम्)
४ (क) नाण पंचविहं पन्नतं तं जहा आभिणिवोहियनाणं, सुयनाणं,
केवलनाणं ।
(ख) तत्थ पंचविहं नाणं, सूर्य आभनिबोहियं ।
ओहिनाणं तु तयं मणनाणं च केवलं ।
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- आचारांग सूत्र १।५।६
-Jainism for Children
- उत्तरा० २८|११ - तत्वार्थ सूत्र ब ओहिनाणं, मनपज्जवनाणं,
नदी सूत्र
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- उत्तरा० २८/४
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