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सम्यक्ज्ञान : एक समीक्षात्मक विश्लेषण
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मतिज्ञान ही श्रुतज्ञान का बीज रूप कारण बनता है। इसलिए मतिज्ञान को उत्पत्ति श्रुतज्ञान के पहले मानी है।
श्र तज्ञान के चौदह मेद निम्न प्रकार हैंअक्षर श्रुत-स्वर और व्यंजनों से होने वाला ज्ञान । अनक्षर श्रुत-खाँसी, छींक की आवाज विशेष...। संज्ञो श्रुत-मन पर्याप्ति वाले जीवों की विचारणा विशेष असंज्ञी श्रुत-मन पर्याप्ति रहित जीवों की गुन गुनाहट । सम्यक् श्रुत—जिस ज्ञान से जीवात्मा को सही बोध की प्राप्ति हो। मिथ्या श्रुत-जिसके कारण प्राणी, हिंसा, झूठ, चोरी प्रवृत्तियों में प्रवृत्त हो । सादि श्रुत-जिस श्रुतज्ञान की आदि हो । अनादि श्रुत-जिस श्रुतज्ञान की आदि नहीं हो। सपर्यवसित श्रुत-अन्त सहित श्रुतज्ञान । अपर्यवसित श्रुत-अन्त रहित श्रुतज्ञान । गमिक श्रुत-दृष्टिवाद सम्बन्धित ज्ञान । आगमिक श्रत-कालिक सूत्रों का ज्ञान । अंग प्रविष्ट-आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्म, उपासकदशा, अन्त
कृद्दशा, अनुत्तरोपपातिक, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद । अंग बाह्य-आवश्यक और आवश्यक व्यतिरिक्त। छह आवश्यकों का प्रतिपादन करने वाला
शास्त्र "आवश्यक" और कालिक, उत्कालिक सूत्रों का प्रतिपादन "आवश्यकव्यतिरिक्त ।"
अवधिज्ञान : एक परिचय पारमार्थिक प्रत्यक्ष के दो भेद-विकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष और सकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष ।२ अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान को विकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष की कोटि में माना है। क्योंकिउक्त दोनों प्रकार के ज्ञान यद्यपि आत्मा से सम्बन्धित हैं, फिर भी केवलज्ञान की अपेक्षा अधूरे, अपूर्ण है। अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाला और मर्यादित जड़गुणास्मक रूपी द्रव्यों का साक्षात्कार कराने वाले ज्ञान को अवधिज्ञान कहते है।४
"भवप्रत्यय" और "गुणप्रत्यय" के भेद से अवधिज्ञान के दो प्रकार हैं। भवप्रत्यय अवधिज्ञान प्रत्येक समदृष्टि देव, नारक एवं तीर्थंकरों को जन्म से ही होता है। निश्चय नय की अपेक्षा क्षयोपशम अन्तरंग कारण और तपश्चरण आदि धार्मिक अनुष्ठान बहिरंग कारण के प्रभाव
जत्थ आभिणिबोहिय नाणं तत्थ सुयनाणं जत्थ सुयनाणं तत्थ आभिणिबोहिय नाणं, दोऽवि एयाई अण्ण, मण्ण मणगयाई तहवि पुण इत्थ आयरिया नाण तं पण्ण वयंत्ति, अभिनिबुज्झ इत्ति आभिणिबोहि नाणं सुणेइत्ति सुयं, मई पुव्वं जेण सुयं, न मई सय पुब्विया।
-नन्दीसूत्र २ तद् विकलं सकलं च
-प्रमाणनयतत्त्वालोक २०१६ ३ तत्र विकलमवधि मनःपर्यवज्ञान रूपतया वैधा।
-प्रमाणनयतत्त्वालोक २।२० ४ अवधिज्ञानावरण विलय विशेष समुद्भवं भवगुण प्रत्ययं रूपी द्रव्यगोचरमवधिज्ञानम् ॥
-प्रमाणनयतत्वालोक २।२१
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