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सम्यज्ञान : एक समीक्षात्मक विश्लेषण - मुनि रमेश [सिद्धान्ताचार्य, साहित्यरत्न]
ज्ञान को सार्वदेशिक महत्ता
चक्षुविहीन अन्धे प्राणी को शत्रु-मित्र का, चोर-साहूकार का, विष-अमृत का, पाषाण-पारस का, नकली-असली का एवं अपने और पराये का सम्यक् बोध नहीं हो पाता है। अतिशीघ्र वह अपने को शत्रु के मायाजाल में जकड़ा देता है। स्व और पर की रक्षा करने में वह सामर्थ्यहीन रहता है । परपेक्षीय रहकर सदा दूसरों का सहारा ढंढ़ा करता है । तुच्छ शक्ति भी हानि पहुंचाने में सफल हो जाती है। मतलब यह है कि उसके लिए एक-एक कदम भी खतरे से खाली नहीं है। पता नहीं वह किस समय संकट के गहरे गर्त में गिरकर अपने देव दुर्लभ देह को क्षत-विक्षत करदे ।
उसी प्रकार सम्यकज्ञान रूपी आंखें नहीं खलने पर उस जीवात्मा की भी वैसी ही शोचनीय स्थिति बन जाती है। कारण यह है कि ज्ञान रूपी कसौटी के अभाव में हेय, ज्ञेय और उपादेय, कर्तव्य-अकर्तव्य एवं हित-अहित का उसे कुछ भी विवेक नहीं रहता और विवेक के अभाव में स्वकीय-परकीय अहित करके दुर्गति के द्वार उघाड़ देता है। इसी कारण ज्ञान की महत्ता बताते हुए मात्र, ज्ञान को ही प्रमाणभूत माना है। जीवाजीव आदि तत्त्वों का निश्चय करने में और हेयउपादेय का विवेक करवाने में ज्ञान ही एक सबल प्रमाण है। न्यायदर्शन की टीका में लिखा है"ज्ञान प्रकाशमानमेवार्थ प्रकाशयति प्रकाशत्वात् पथा प्रदीपवत्" अर्थात् दीपक की तरह ज्ञान समस्त चराचर वस्तुओं को प्रकाशित करने वाला है। इसी मान्यता की परिपुष्टि व्यवहारभाष्य में की है-"ज्ञान विश्व के समस्त रहस्यों को प्रकाशित करने वाला है और ज्ञान से ही मनुष्य को कर्तव्य का सम्यक् बोध होता है।
एकदा गौतम गणधर ने प्रभु महावीर से पूछा-भंते ! क्या ज्ञान इह-मविक (इस भव में) पर-मविक (परभव में) साथ रहता है या उभय भविक है ?*
प्रत्युत्तर में प्रभु महावीर ने कहा-गौतम ! ज्ञान सदैव आत्मा के साथ रहता है। अर्थात ज्ञान इह-मविक, पर-भविक और उभय-मविक है।५
१ अन्नाणी कि काही ? किं वा नाहिइछेय पावगं ?
-दश०४।१० २ (क) स्व-पर व्यवसायी ज्ञानं प्रमाणम् । (ख) अभिगतानभिगत वस्तु स्वीकार तिरस्कार क्षमं हि प्रमाणं अतो ज्ञानमेवेदम ।
-प्रमाण-नय-तत्वालोक १॥२॥३ ३ सव्व जग्गुजोय करं नाणं । नाणेण नज्जए चरणं ॥
-व्यवहारभाष्य ७।२१६ इहभविए मंते ! णाणे परभविए णाणे तभय भविए णाणे...। ५ गोयमा ! इहभविए वि णाणे, परभविए वि णाणे तदुभय भविए वि णाणे। -भगवती सत्र
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