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भगवान महावीर और मालवपति दशार्णभद्र २८१ एवं हर्षित थी। इस प्रकार सवारी समवसरण की दिशा में आगे बढ़ रही थी और पीछे वैभव की सुदूर तक एक लम्बी कतार । जो सचमुच ही नृप के लिए अभिमान बढ़ने का निमित्त बनती जा रही थी।
___"प्रभु अभी हाल कहाँ विराज रहे हैं ?" दर्शन की भावना से शक्रन्द्र ने अवधिज्ञान से देखा, तो प्रभु दर्शन के साथ-साथ दशार्णभद्र के वैभव से लदी उस सवारी को
और नृप के जीवन में उमड़ते हुए उस अभिमान के वेग-प्रवाह को भी देखा। अहो ! कितना गर्व ? कितना अभिमान ? मैं भी अभी मानवीय धरातल पर जाऊँ और बताऊँ कि वैभव किसे कहते हैं। वास्तव में नृप दशार्णभद्र कूप-मंडूक मालूम पड़ रहा है। तभी तो बिन्दु सम्पत्ति पर फूला नहीं समा रहा है। बस, उसी समय शकेन्द्र ने वैक्रिय शक्ति से समवय वाले एक समान आकार एवं रंग-रूप वाले, एक सौ आठ देवकुमार तथा उतनी ही देवियाँ अपनी युगल भुजाओं में से प्रकट किये। दैविक शक्ति के प्रभाव से कई हाथियों की कतारें तैयार कर ली गईं। एक-एक हाथी के दांत की नुकीली नोक पर बावड़ी जिसमें निर्मल नीर में विकसित कमल पुष्प लहलहा रहे हैं और कमलों को एक-एक पंखुडी पर सोलह शृगार से शृंगारित सुरांगना अतिमोदपूर्वक नृत्य कर रही हैं। ऐसे एक नहीं अनेकानेक हाथी धरातल पर दशार्णभद्र की सवारी के ठीक सामने एक के बाद एक उतरते दिखाई दिये।
दशार्णभद्र ने आकाश मार्ग से उतरती हुई अपूर्व ठाट-बाट वाली इन्द्र सहित सवारी को देखा। देखते ही चकित से रह गये । इन हाथियों के सामने मेरी यह सवारी ! आडम्बर युक्त यह साहबी, बिल्कुल फीकी है और तो ठीक किन्तु इस एक ही हाथी के समक्ष मेरा सारा वैभव तुच्छ एवं नहीं के बराबर है । वस्तुतः कूप-मण्डूक की तरह मैं अपनी लघु विभूति पर व्यर्थ ही फूल रहा हूँ। थोड़ी-सी सम्पत्ति पाकर क्षुद्र नदी की तरह शोर मचा रहा हूँ और आधे कुम्भ की तरह छलक रहा हूँ। बस अपने आप में नृप दशार्णभद्र ने बहुत लज्जित होकर सिर नीचे कर दिया। अभिमान हिम की तरह द्रवित हो उठा । मान-अभिमान का नृप ने समूल दाह संस्कार किया। लेकिन स्वाभिमान को अमर कैसे रखू ? ताकि बात की करामात सोलह आना बनी रहे ।
उफ्...... ! स्वाभिमान को मिटाना और अमिट रखना मेरे हाथ का ही तो खेल है। बस, अनित्य भावना के उद्गार उभरे-"अणिच्चं खलु भो ! मणुयाणजीवियं कुसग्ग जलबिन्दु चंचलं ।" मैं गृहत्याग करके प्रभु के चरण-शरण में पहुँचूं । फिर देखें इन्द्र किस प्रकार होड़ कर सके ? जीवन के लिए यह भी तो नाटक करना आवश्यक है । बस सारी सवारी समवशरण में पहुँची। चरणस्पर्श करके दोनों हाथ जोड़कर नृप बोला-आराध्य प्रभो ! विभाव दशा के कारण मैं काफी समय तक कषाय किंकर बना रहा, अब मुझे नित्यानित्य का भान हुआ है। अतएव अति शीघ्र इस उपस्थित जनता के समक्ष ही आप मुझे अपना शिष्य बनाइये । दीक्षा देकर मुझे दिव्य पांच महाव्रत रूप महारत्नों को देकर कृत-कृत्य बनाने की महती कृपा कीजिए। यह मेरी
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