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मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ
विनम्र एवं लघु प्रार्थना है ताकि भगवतचरणाश्रय से जीवन का उद्धार कर सकूँ ।
श ेन्द्र और सारी जनता की निगाह एकदम नृप की विरागता पर थी । कहाँ तो भोग- ऐश्वर्य के पिपासु और कहाँ योगेश्वर बनने के लिए इतनी दृढ़ विरतता !
अरे ! इसी को कहते हैं 'गुदड़ी के लाल ने कर दिया कमाल ।' जनता अचरज करती हुई दशार्णभद्र के आदर्श त्याग - वैराग्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगी ।
शीघ्र ही प्रभु ने नृप दशार्णभद्र को आर्हती दीक्षा प्रदान की । दशार्णभद्र नृप अब मुनि के पद पर आसीन हुए । जनता के हजारों मस्तक श्रद्धा भक्ति से मुनि दशार्णभद्र के पद पंकज में झुक गये । इन्द्र ने भी अपना मस्तक नवाया । पूर्व अवहेलना एवं अपमान की क्षमा याचना माँगी और बोला - " मुनीश्वर ! आपके आदर्श व महा मूल्यवान इस वेष की तुलना में मैं तथा मेरा समस्त वैभव तुच्छ है, कुछ भी समानता नहीं कर सकता। आप आध्यात्मिक तत्वों के धनी हैं, पुजारी एवं साधक हैं, जबकि हम तो भौतिक सुखों के दास हैं, भोगों में ही भटक रहे हैं । यह अद्वितीय घटना इतिहास में अमर रहेगी । मुने ! आपका स्वाभिमान - शाश्वत है । उसको कोई भी शक्ति क्षीण नहीं कर सकती है ।" ऐसा कहता हुआ इन्द्र अधिक स्तुति करता हुआ चला गया । "
१ दसण्णरज्जं मुइयं चइत्ताणं मुणी चरे । दसणभद्दो निक्खतो, सक्खं सक्केण चोइओ ॥
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(उत्तरा० १८/४४ )
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