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मालव-संस्कृति को जैनधर्म की देन
के अद्भुत चमत्कार दिखलाये और नागकुमार की अपराजेय शक्ति, पराक्रम, और वीरता से प्रभावित हो वापस लौट आये। उस समय उज्जयिनी में जयसेन राजा राज्य करता था। उसकी पुत्री मेनकी किसी को भी अपने योग्य वर न पाकर, विवाह के लिये तत्पर नहीं थी। परन्तु नागकुमार की वीरता का परिचय पाकर, वह उससे विवाह करने को राजी होगई। मालवा के शासक धर्मनिष्ठ और वीर थे। तेइसवें जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ के तीर्थस्थल में हुए चम्पा नरेश करकण्डु के चरित्र में एक प्रकरण द्वारा उक्त कथन की पुष्टि भी होती है, जिसमें राजा अरिदमन का चरित्र वर्णन करते हुए मुनिराज बताते हैं कि-अनेकों कष्टों, बाधाओं और कठिनाइयों को सहन कर अरिदमन अपनी रानी से सकुशल आ मिला था।२ चौबीसवें तीर्थंकर महावीर के मालव देश की प्राचीन नगरी उज्जयिनी में आकर अतिमुक्तक नामक श्मशान में ध्यानस्थ होने का उल्लेख मिलता है, जहाँ रुद्र नामक व्यक्ति द्वारा उन पर घोर उपसर्ग किया गया। महावीर अपने ध्यान में दृढ़ एवं निश्चल रहे। रुद्र का रौद्ररूप उनको विचलित नहीं कर सका। पाशविक-शक्ति आत्म-शक्ति के सम्मुख नतमस्तक होगई । रुद्र महावीर के चरणों में जा गिरा तभी से महावीर "अति वीर" कहलाए। इसी समय उज्जैन में चण्डप्रद्योत नामक राजा था। उसके पश्चात् महावीर के 'निर्वाण दिवस' पर पालक नामक राजा सिंहासनारूढ़ हुआ।
मौर्यकालीन जैन संघ का केन्द्र-चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में मालवा का निर्ग्रन्थ-जैन संघ, श्रुतकेवली भद्रबाहु की अध्यक्षता में प्रख्यात था। स्वयं सम्राट चन्द्रगुप्त उनके उपदेश सुनते थे और उनके मुख से बारह वर्ष के अकाल की बात सुनकर स्वयं भी दिगम्बर मुनि हो गये थे । वे निर्ग्रन्थ संघ के साथ दक्षिण भारत भी गये थे। उज्जयिनी में शेष रहे निर्ग्रन्थ श्रमण, अकाल की यातनाओं से पथभ्रष्ट हो, अपना दिगम्बर वेष छिपाने की दृष्टि से एक वस्त्र खण्ड रखने लगे। जिन्हें 'अर्धफालक' कहा गया। अत: यह कहना अत्युक्तिपूर्ण न होगा कि निर्ग्रन्थ जैन संघ में भेद की भावना भी मालव नगरी उज्जयिनी में जन्मी। उज्जयिनी में निर्ग्रन्थ संघ का महत्त्वपूर्ण केन्द्र रहा है । चाहे उसमें भेद उत्पन्न हो गये हों। जैन श्रुतों के उद्धार
णायकुमारचरिउ (कारजा), ७३ पृष्ठ ७२-७३ पर विस्तृत कथा प्रसंग में उल्लेख है कि
बाइसवें जैन तीर्थंकर अरिष्टनेमि के तीर्थस्थल (मगध) के राजपुत्र नागकुमार महाभाग थे। २ करकण्डुचरिउ (कारजा) ८.१-२५, पृष्ठ ७१-७८ पर करकण्डु के सम्बन्ध में पूछे गये एक
प्रश्न के उत्तर में मुनिराज राजा अरिदमन की कथा विस्तार से सुनाते हैं और निरूपित
करते हैं कि यह उसके पुण्य और साहस का परिणाम था कि वह अपनी रानी से आ मिला। ३ हरिवंशपुराण, पर्व ६०, श्लोक ४८८, में महावीर के एकान्त विचरण कर साधनालीन होने
का उल्लेख है । उन्होंने बारह वर्ष तक साधनामय जीवन व्यतीत किया था। ४ संक्षिप्त जैन इतिहास, भाग-२, खण्ड-१, जैन शिलालेख संग्रह की भूमिका । ५ काणे कमेमोरेशन व्हाल्यूम (पूना) पृष्ठ-२२८-२३७ के अनुसार निर्ग्रन्थ संघ में दिगम्बर
श्वेताम्बर का भेद पैदा हुआ था।
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