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मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ
रक्षाबन्धन त्यौहार का जन्म मालवा में-जैन मान्यतानुसार रक्षाबन्धन त्यौहार का जन्म मालवा की प्रसिद्ध नगरी उज्जयिनी में माना गया है। हरिवंशपुराण और हरिषेण कथाकोष की कथा प्रसंगों के अनुसार दिगम्बर जैनाचार्य अकम्पन स्वामी का अपने संघ सहित मालवा की राजधानी उज्जयिनी में आगमन हुआ था। उस समय उज्जयिनी में श्रीधर्म नाम का न्यायप्रिय राजा राज्य करता था। उनके जिनबलि आदि मंत्रियों के द्वारा साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाने के कारण 'रक्षाबन्धन' त्यौहार का जन्म माना गया है।
मालवा पर अहिंसा धर्म का प्रभाव-अहिंसा धर्म के प्रचार और उसके गहरे प्रभाव का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण हमें 'यशोधर चरित्र' में मिलता है। मालव देश के राजा यशोधर बलि-प्रथा को राजाज्ञा से सम्पूर्ण राज्य में प्रतिबन्धित कर, स्वयं दया धर्म को प्रजा सहित स्वीकार कर लेते हैं। पाण्डव वीर अर्जुन की पूर्व जन्मस्थली उज्जैन ही थी। अर्जुन अपने तीन जन्म पूर्व उज्जैन की एक धर्मभीरु राजकुमारी सुमित्रा के रूप में था, जिसने एक जैन मुनि से धर्मोपदेश सुन व्रत ग्रहण किया था, परन्तु वह उसे पूर्ण भावना सहित केवल एक दिन ही ग्रहण कर पाई थी कि उसकी मृत्यु होगई । पश्चात् वह उज्जयिनी के ब्राह्मण परिवार में पुत्र रूप में जन्मी और अपने कौशल से राजमंत्री बन गई । उसके शासन से प्रजा सुखी थी । पश्चात् वृद्धावस्था में उसने तप किया और स्वर्ग में देवता बन गई। वहां आयु पूर्ण करने पर पाण्डवों में अर्जुन के रूप में जन्मी। यह सब जैन मुनियों की तप, व्रत और साधना पद्धति अपनाने का ही प्रभाव था ।
धर्मवीरों तथा रणवीरों की भूमि-जैनधर्मग्रन्थों में यह उल्लेख है कि मालवा अनेकों धर्मवीर जैन मुनियों का प्राचीन केन्द्र रहा है । अकम्पनाचार्य जैसे अनेक मुनिराज यहाँ आते रहे हैं। मगध के राजपुत्र नागकुमार के काल में भी यहाँ प्रभावशाली जैन मुनियों का बाहुल्य था। उसी समय मालवा की राजधानी उज्जयिनी में पांच सौ उद्भट योद्धा रहते थे। जब जैन मुनियों से नागकुमार के महाप्रतापी होने की बात कही, तो वे सभी मुनियों के साथ चल पड़े। मार्ग में उन्होंने अपनी शक्ति और पराक्रम
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हरिवंशपुराण-२०११-६, हरिषेण कथाकोष (कथा क्रमांक-११) जब मंत्रीगण मुनि हत्या को उद्यत हुए तो राजा ने उन्हें निर्वासित कर दिया, तब संघ की रक्षा हेतु 'रक्षाबन्धन' त्यौहार मनाया गया। यशोधर चरित्र (१।२२) में उल्लेख है कि राजा यशोह अपने जीवन के अन्तिम समय में राजपाट पुत्र यशोधर को सौंपकर स्वयं जैन मुनि हो जाते हैं। उस समय बलि-प्रथा का तीव्रतम प्रभाव था। न केवल पशु वरन् नर भी यज्ञ में होम दिये जाते थे। परन्तु जैन मुनियों की अहिंसा धर्मयुक्त शिक्षा का यशोघर पर गहरा प्रभाव पड़ा और उसने राजाज्ञा से बलि-प्रथा पर रोक लगा दी। परिणामस्वरूप उसकी प्रजा भी जैनधर्मानुयायी बन गई। करकण्डुचरिउ (कारजा) १०।१८-२२ विस्तृत कथा प्रसंग हेतु देखिये :'उप्पण्णउ अज्जुण होवि साइ। फलु एहउ पुत्ति विहाणे होइ ।'
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