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मालव-संस्कृति में धार्मिकता के स्वर 0 श्रीचंद जैन, एम.ए., एल-एल.बी. (उज्जैन)
मालव की प्राचीनता मालव एक परम पुनीत जनपद है। जिसकी अर्चना-वन्दना में कई युगों से कवि समुद्यत रहे हैं । इस पावन प्रदेश का प्रत्येक भाग धार्मिक दृष्टि से प्रशस्त है, न कभी यह अकाल से पीड़ित रहा, और न कभी इससे किसी का अहित हुआ।
हमारे प्राचीन ग्रन्थों में इस मालव की प्रशस्तियां विविध रूपों में गाई गई हैं। समस्त धर्म यहाँ फले-फूले एवं अनेक सांस्कृतिक चेतनाएँ प्रबुद्ध बनकर इस प्रदेश की सहजशील धार्मिकता को व्यापकता प्रदान करती रही है।
मालव (मालवा) का पुरातन इतिहास बड़ा गौरवमय रहा है एवं इसका प्राकृतिक वैभव आज भी मनोरम तथा नैसर्गिक एवं आनन्ददायक है।
विविध शासनों से प्रभावित होने के कारण इस प्रदेश की सीमाएं समय-समय पर परिवर्तित होती रही हैं । और इन परिवर्तनों से इस उदात्त भूखण्ड की गौरवान्विति लोक संस्कृति अधिक अलंकृत हुई है । जिस प्रकार दिनकर का व्यापक आलोक विश्व को परिव्याप्त कर उसके कण-कण को प्रकाशित करता है। इसी प्रकार इस वंदनीय मालव की गरिमा से संसार की ऋद्धि-सिद्धियां विशेषत: चमत्कृत हुई हैं। इस रम्य प्रदेश की रमणीयता से प्रभावित होकर संत प्रवर कबीरदास ने प्रमुदित होकर एक दिन गाया था
देश मालवा गहन गम्भीर ।
डग-डग रोटी पग-पग नीर ।। धन-धान्य से परिपूर्ण इस भूमि का वैभव रत्नगर्भा धरित्री के लिए अत्यधिक गरिमामय है । अमीर-गरीब दोनों का यहाँ सम्मान-सत्कार उपलब्ध है। दूसरे शब्दों
गृह-गृह में होता है, अर्चन ! गृह-गृह में देवों का वंदन ! गृह-गृह में अर्घ्य धूप नव पूजन ! गृह-गृह में संगीत निगुंजन ! प्रिय उल्लास हास कुल कुंजन ! मेरे 'मालव' को अभिनन्दन !!
(मालय गौरव-श्री मदनलाल वर्मा)
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