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प्राचीन भारतीय मूर्तिकला को मालवा की देन
डॉ० भगवतीलाल राजपुरोहित
[१२, वीर दुर्गादास मार्ग, उज्जैन (म० प्र०)] किसी भी देश की संस्कृति का दर्पण वहां की कला होती है । भारतीय कला भी यहां के युगयुगीन जीवन का दर्पण है । धर्म तथा दर्शन, अर्थ तथा काम, सौन्दर्य तथा कुरूपता, बौद्धिकता एवं सहृदयता, मानव-प्रकृति तथा दृश्य-प्रकृति, राजा तथा प्रजा, युद्ध एवं शान्ति, स्वामी तथा मजदूर, जड़ एवं चेतन, दर्शनों की गम्भीरता तथा विदूषकी हास्य-व्यंग्य, सदाचार का आदर्श तथा विषयों का चरम विलास, योग तथा भोग, चरम निराशा एवं प्रखर कलाविलास इत्यादि निखिल जगत की प्रवृत्तियों तथा उपलब्धियों का अंकन भारतीय कला में, वैदिक, बौद्ध तथा जैन कलाओं में अवैर रूप से हुआ है। भारतीय सौन्दर्य के प्रतिमानों में भेद नहीं था, भारतीय जीवन के आदर्श तथा यथार्थ सब धर्मों में एक जैसे थे-यही कारण है कि
भेद होते हुए भी वैदिक, बौद्ध तथा जैन कला में ये समान रूप से रूपायित हुए हैं। कलाकार जब दृढ़ समाधि होता है तो उसकी कला धर्म से परे, साधारणीकरण की परिधि में पहुँच जाती है जहाँ प्रत्येक सहृदय को अलौकिक आनन्द प्राप्त हो सके, वह रस दशा में पहुँच सके । नाट्य-प्रदर्शन के समान कला भी समस्त समाज के आनन्द के लिए निर्मित होती थी और द्रष्टा का उसमें डूब जाना ही उसकी सफलता का सार माना गया है। भारतीय दर्शनों के समान यहाँ के साहित्य तथा कला का आदर्श भी 'परमानन्द' की उपलब्धि रहा है। यहां श्रेष्ठ कला वह नहीं मानी गयी जो विलासिता की ओर उन्मुख करे। यही भारतीय एवं पश्चिमी कला में मूल अन्तर है
विश्रान्तिर्यस्य सम्भोगे सा कला न कला मता।
लीयते परमानन्दे ययात्मा सा परा कला ॥ भारतीय मूर्तिकला कला का यह आदर्श एवं उपर्युक्त सम्भार लिए सजी, संवरी तथा कलाकारों की अनवरत साधना की मूर्त सुन्दरता इनके माध्यम से हम तक पहुँच सकी।
इस देश की सभ्यता के ज्ञान के साथ ही यहाँ की कला से भी हमारा परिचय होता है । सिन्धु-सभ्यता से धातु एवं मिट्टी की बनी अनेक मूर्तियां उपलब्ध हुई परन्तु उस काल की मालव-सभ्यता से ऐसी कोई स्मरणीय, मूर्ति उपलब्ध नहीं हो सकी। इसके बाद सदियों का अन्तराल है। मालवा ही नहीं, सम्पूर्ण भारतीय कला में
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