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मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ
परमादरणीय प्रवर्तक हीरालालजी महाराज जैन समाज के एक जगमगाते हीरे हैं । उन्होंने अपने जीवन को निखारने के लिए, चमकाने के लिए अनेक घातप्रत्याघात सहन किये हैं। हीरा खदान से निकलने पर भी उतना चमकता नहीं है जितना कि शान पर चढ़ाने से चमकता है। मुनिश्री जी का जीवन रूपी हीरा भी सद्गुरुदेव पं० प्रवर लक्ष्मीचंदजी महाराज के शान पर चढ़कर चमका है, पं० श्री खूबचंदजी महाराज के सम्पर्क से उसमें अधिक निखार आया है ।
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मैंने उनके दर्शन कब किये ? यह निश्चित रूप से कहना सम्भव नहीं है । बाल्यकाल में, सम्भव है उदयपुर में उनके दर्शनों का सौभाग्य मिला हो, किन्तु श्रमण बनने के पश्चात् जब मैंने उनके द्वारा सम्पादित 'खूब - कवितावली' पुस्तक जो सन्मति ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित हुई थी, उसको देखा, पढ़ा, तभी से उनके दर्शन के लिए मन लालायित था ।
मेरे परमाराध्य गुरुदेव महास्थविर श्री ताराचन्दजी महाराज तथा मेरे श्रद्धेय गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी महाराज, राजस्थान की राजधानी जयपुर में अपने शिष्यों सहित विराज रहे थे, मैं भी साथ ही था, उस समय आप कलकत्ते की ओर से उग्र विहार कर वहाँ पधारे। कुछ दिनों तक वहाँ साथ रहने का अवसर प्राप्त हुआ । जैसा मैंने सुना था उससे भी अधिक मुझे आप सरल, सहृदयी प्रतीत हुए। उसके पश्चात् भीम, अजमेर, भोपालगढ़ और बम्बई में आपके साथ रहने का व मिलने का अवसर मिला और जब भी मैंने देखा तब भी आपका मुख कमल सदा खिला हुआ पाया । आपके विचार उदात्त, मन निर्मल, वाणी मधुर एवं हृदय विराट पाया । स्नेह की जति जागती प्रतिमा के रूप में देखकर मैं सदा मुग्ध हुए बिना नहीं रह सका ।
आप आगम साहित्य के कुशल प्रवचनकार हैं, आपके प्रवचनों में लोक कथाएँ और आगमिक कथाओं की प्रधानता रहती है । दोहे, श्लोक, सवैये व उर्दू शायरी का भी प्रयोग यत्र-तत्र हुआ है । 'हीरक-प्रवचन' के नाम से अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं । एक भाग पर मुझे भी भूमिका लिखने का अवसर मिला था । आपश्री श्रमण संघ के एक आदरणीय प्रवर्तक हैं। आपश्री का अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है, यह आल्हाद का विषय है । मैं श्रद्धा स्निग्ध श्रद्धार्चना उनके श्रीचरणों में समर्पित करता हुआ यह मंगल कामना करता हूँ कि वे पूर्ण स्वस्थ रहकर जैनधर्म की सतत प्रभावना करते रहें ।
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