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वचन और विचार १०५ शस्त्र का अपने चित्त पर आघात मत होने दो, वह गाली दे तो समझ लो कि-- बेचारा क्रोध से उन्मत्त होकर बेभान हो गया है, दया का पात्र है; क्रोध का नहीं। इस प्रकार सोचकर अगर तुम शांति धारण कर लोगे तो गाली वहीं की वहीं रह जायगी। ऐसा करोगे तो उसमें और तुममें अन्तर रहेगा; अन्यथा दोनों में क्या अन्तर रह जायगा?
पंडित की परिभाषा बहुत से लोग पुस्तकों के कीड़े होते हैं, वे ढेर की ढेर पुस्तकें पढ़ते हैं, और संसार से विदा हो जाते हैं। कवि कहता है कि उन्हें पंडित नहीं माना जा सकता। मैं तो उसी को पंडित मानता हूँ जिसने अढाई अक्षर वाले 'प्रेम' शब्द के मर्म को समझ लिया हो, जिसने प्रेम के अढाई अक्षर नहीं पढ़े हैं, उसने कुछ भी नहीं पढ़ा है। सारी पढ़ाई का सार यही है कि प्राणी-मात्र के प्रति प्रेम और मैत्री का प्रकाश और विकास दो। क्योंकि जैसी अपनी आत्मा है, वैसी ही दूसरों की है। संसार में हजारों पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं, उन्हें पढ़कर अगर प्रेम-भाव नहीं जागा तो उनका पढ़ना क्या काम आया?
पैसे की प्रतिष्ठा आज के भौतिक युग में पैसा परमात्मा के समान है। पैसा पास में है तो जंगल में भी मंगल है। जिसके पास पैसा नहीं है, उस गृहस्थ की कोई पूछ नहीं है । कहावत है 'साधु के पास पैसा है तो वह कोड़ी का है और गृहस्थ के पास पैसा न हो तो वह कोड़ी का है।' पैसे के बिना सगा भाई भी भाई की तरफ नहीं देखता। यह पैसा ही तो है जो राजा को भी अपने वश में कर लेता है। राजा का कलेजा भी पैसे को देखकर ठण्डा हो जाता है । पैसा न्याय को भी अन्याय में परिणत कर देता है। पारस्परिक वैर-विरोध को उत्पन्न करने का साधन है । जहाँ घनिष्ठ प्रेम है वहाँ भी जब पैसा आड़ा आ जाता है तो मुकदमेबाजी करा देता है। यहाँ तक कि-एक को दूसरे के प्राणों का घातक भी बना देता है।
स्वाध्याय : एक तप आज समाज में धर्म तत्त्व सम्बन्धी अज्ञानता फैली हुई है। लोग अखबारों द्वारा इधर-उधर की बातों को तो जान लेते हैं, मगर शास्त्रीय विषयों की जानकारी नहीं करते । इस कारण उनका शास्त्रीय ज्ञान नहीं जैसा ही देखा जाता है। आज स्वाध्याय की प्रवृत्ति बढ़ाने की आवश्यकता है, यह देश बहुत बड़ा है, और साधु-संतों की संख्या परिमित है। उनमें भी सभी प्रकार के साधु हैं। अतएव उन पर निर्भर न रहकर आपको प्रतिदिन स्वयं स्वाध्याय करना चाहिए और अपने ज्ञान की वृद्धि करके उसे आत्मकल्याण में लगाना यह भी एक तप है।
कथनी करनी में भेद क्यों ? लोग पुण्य के फल को तो चाहते हैं, मगर जिन प्रशस्त कृत्यों से पुण्य का संचय होता है, उन्हें नहीं करते। दीन-दुखियों की सेवा करने से, उन्हें साता पहुँचाने से और
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