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अभिनन्दन-पुष्प ६७ कि इस सांसारिक जीवन को त्याग कर भगवती दीक्षा अंगीकार कर लेनी चाहिए । अस्तु विक्रम संवत् १९६२ कार्तिक शुक्ला १३ गुरुवार को गुरु श्री जवाहरलाल जी महाराज साहब के पवित्र सान्निध्य में रामपुरा नामक नगर में पतित पावनी भगवती दीक्षा ग्रहण करली । सुयोग से आपको अपने दीक्षा गुरु के रूप में प्रसिद्ध जैनाचार्य श्री खूबचन्दजी महाराज का वरदहस्त रहा है।
अपनी दीर्घ दीक्षा अवधि में आपने देश के कई प्रमुख नगरों में विहार (पैदलयात्रा) किया है और वहाँ के जन-मानस को अपने ज्ञान, तप और साधना के अविरल प्रवाह से अवगाहन किया है।
आपकी विद्वत्ता के विषय में तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि आप जैन आगमों एवं ज्योतिष के प्रकाण्ड पण्डित हैं। आपकी व्याख्यान शैली अपने आप में सरल एवं बोधगम्य है । जिस किसी ने हृदय से आपकी मधुर वाणी को श्रवण किया है वह सदैव के लिए आपका भक्त-सा बन गया है ।
आपका सम्पूर्ण जीवन साधनामय, आचरण तथा तपस्या का पवित्र जीवन रहा है । आप अपनी संन्यास परम्परा के ७२ ऋतु चक्रों को बड़ी सफलतापूर्वक पार कर चुके हैं । यह दीर्घ सुयशमयी अवधि कितने जनकल्याण और परोपकार तथा सेवाभाव एवं साधना से परिपूर्ण है, यह बता सकना अत्यन्त कठिन है।
जिन महान विभूतियों ने अपने प्रखर चारित्र बल से, कठोर संयम से, अपूर्व तप, त्याग और तपस्या से, अद्वितीय ज्ञान आराधना से तथा अविचलित ब्रह्मचर्य से श्रमणपरम्परा एवं संस्कृति का पोषण, संरक्षण व अभ्युत्थान का सुमंगल तथा स्फूर्तिदायक कार्य किया है, उनमें से आप भी एक हैं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। मुनिजीवन के इतिहास में आपने जो परोपकारी, जग-हितकारी एवं सेवा भावना के पुनीत कार्य किये हैं, वे सब स्थानकवासी जैन समाज के इतिहास में अपना एक प्रमुख स्थान रखते हैं। आप जैसी परम उपकारी दिव्य विभूति किसी भी समाज को उसके महान पुण्योदय से ही प्राप्त हो सकती है। आपके गुण एवं महिमा को शब्दों के परिवेश में बांधना अत्यन्त कठिन है।
ऐसे निर्मल शुद्ध अन्तःकरण वाले सुमधुर संत प्रवर के प्रति कृतज्ञता अर्पित करते हुए मैं अपने को धन्य और कृत-कृत्य समझता हूँ।
के चरणों में शत-शत वन्दन !
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