________________
८६ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ पता लगाना चाहिए। क्या सारा संसार इसी तरह मरता-मिटता और जन्म धारण करता है ? क्या इसी तरह मैं भी मरूँगा?" आदि-आदि विचार-तरंगें अन्तर्ह दय रूपी सागर में हिलोरें खाने लगीं। धीरे-धीरे ये शुभ विचार ही चरित्रनायक के लिए वैराग्य की पृष्ठभूमि बन गई । बालक को खोया-खोया देखकर पिता का स्नेहमय हृदय द्रवित हो उठता। हीरालाल उनकी अब इकलौती संतान रह गई थी । फलतः लक्ष्मीचन्दजी ने अपने हृदय का समस्त लाड़-प्यार हीरालाल के जीवन में उंडेल दिया। पर पिता का प्यार भी उनकी मानसिक स्थिति में कोई परिवर्तन न ला सका।
माँ और मौसी का प्यार एक-सा है । माँ की गोद न सही, मौसी की गोद तो है, यह सोचकर आपकी मौसी कजोड़ीबाई बालक हीरालाल को अपने पास ले आई । मातृवत् प्यार पाकर भी बालक का हृदय पूर्ववत् ही आकुलित बना रहा। जीवन और मरण की जिज्ञासा अभी तक उपशांत नहीं हुई। व्यक्तित्व कभी छुपता नहीं
बालक हीरालाल प्रारम्भ से ही अत्यन्त मेधावी एवं विवेक-विनय-शील था। वयानुसार हिन्दी-महाजनी और अंग्रेजी भाषा का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया । ग्यारह वर्ष की लघुवय में वह कठिन से कठिन गणित के प्रश्नों का मुखाग्र हिसाब कर दिया करता था। एक व्यापारी के पुत्र को और क्या चाहिए ? यह बात आज भी व्यावहारिक जीवन में साकार देखी जाती है।
बालक की प्रतिभा ने श्रेष्ठी ताराचन्दजी दुगड़ का ध्यान अपनी ओर खींचा। उनके कोई संतान नहीं थी। ऐसा कहा जाता है-'चने हैं तो चबाने वाला नहीं' तदनुसार धन था पर संतान के अभाव में वह भी काटने दौड़ता था । उन्होंने बालक हीरालाल को अपने यहाँ दत्तक लेने की इच्छा श्रीमान् लक्ष्मीचन्दजी के सम्मुख रखी। पिता, पुत्र के विचारों को भली-भांति जानते थे। उन्होंने कहा-मेरी ओर से कोई मनाई नहीं है, परन्तु आप पहले हीरा से पूछ लें।
सेठजी ने मन ही मन सोचा था-वह क्या मना करेगा? हमारी ऊँची अट्टालिका को देखकर ही हाँ भर लेगा। उन्होंने हीरालाल को अपने पास बुलाया और स्नेहसिक्त वाणी में 'दत्तक' लेने की बात कही।
श्रेष्ठी ताराचन्दजी को उत्तर देते हुए तपाक से बालक हीरालाल ने कहामैंने अपने समुज्ज्वल भविष्य के लिए निर्णय कर लिया है। मैं साल-दो साल में ही संसार के समस्त बन्धनों को तोड़कर साधु-जीवन अंगीकार करना चाहता हूँ। आप किसी अन्य भाई-बन्धु को दत्तक लेने की सोचेंगे तो अच्छा रहेगा। श्रीमान् ताराचन्द जी तो अवाक् एवं विस्फारित-नेत्र रह गये। उनके आश्चर्य का पार नहीं रहा कि हीरालाल ऐसी गूढ़ बातें कहाँ से सीख आया ? जिस ऐश्वर्य के लिये मोह-मायावी मानव मर मिटते हैं, उसी धन को प्राप्त होने पर भी यदि उसका उपभोग न करके कोई मिट्टी के ढेले की तरह फेंक दे तो आश्चर्य न हो तो और क्या हो ?
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org