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करुणा के अमर देवता २१ अन्त में काल के गाल में समा गया। सारी जनता बोल पड़ी - "गुरुदेव के मार्ग-दर्शन से हम बच गये ! हम बच गये । "
एक मधुर स्मृति
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सं २००४ का वर्षावास कोटा (राजस्थान) में था । धार्मिक प्रवृत्तियाँ प्रगतिशील थीं । उन दिनों वहाँ कोटा सम्प्रदाय के त० श्री मांगीलालजी महाराज साहब वहाँ विराज रहे थे । वे शारीरिक अंगोपांग से लाचार थे । चरित्रनायक श्री की सेवा में प्रार्थना की कि - अब मेरा जीवन स्वल्प काल का है, मैं आंखों से एवं पैरों से लाचार हूँ । फिर भी किसी गृहस्थ से सेवा करवाना नहीं चाहता हूँ । आप मुझे संयम का साथ दें। ताकि मेरा संयमी जीवन निर्मल रह सके। इस प्रकार उद्गारों को व्यक्त करके एक महीने की तपस्या का प्रत्याख्यान करके संयम में विचरण करने लगे ।
प्रत्युत्तर में श्रद्धेय गुरुदेव ने कहा - तपस्वी जी ! सेवा करना तो मुनियों का परम धर्म है | आप निश्चित - निश्चल होकर तपाराधना में रत रहें। मैं तथा मेरे साथी मुनि सेवा के लिए तैयार हैं । भगवान महावीर के इस सिद्धान्त को कैसे भूल सकते हैं -
“ गिलाणस्स अगिलाए वैयावच्चकरणयाए अब्भुठेयव्वं भवई । " - स्थानांग सूत्र ८ रोगी की सेवा करने के लिए सदा अग्लान भाव से तैयार रहना चाहिए। और भी कहा है
— भगवती सूत्र
अर्थात् — जो दूसरों के सुख एवं कल्याण का प्रयत्न करता है वह स्वयं भी सुख एवं कल्याण को प्राप्त होता है । वस्तुतः चरित्रनायक श्री ने बहुत ही स्नेह सौजन्यता के साथ निष्ठापूर्वक उन महातपस्वी की वैयावृत्य सेवा सुश्रुषा की । अन्त में, उनसठवें दिन उस तपोधनी का स्वर्गवास हो गया । समय गुजर गया । पर बात रह गई ।
" समाहिकारएण तमेव समाहिं पडिलब्भई । "
इसी चातुर्मास के अन्तर्गत एक दिन कोटा निवासी एक हस्तरेखाविज्ञ विद्वान् आकर बोला
“क्यों महाराज ! हस्तरेखा एवं ज्योतिष सम्बन्धी कुछ ज्ञान-विज्ञान का जान
पना है ?"
“बड़ा बड़ाई ना करे, बड़ा न बोले बोल” – इस विचारधारानुसार गुरुदेव ने आगन्तुक विप्रवर से सरल मुद्रा में कहा—
" पण्डित जी ! काम चलाऊ अर्थात् सिन्धु में से बिन्दु के समान समझ लीजिए । " जैसा चाहिए वैसा संतोष नहीं होने से पंडित वहाँ से चलता बना और कुछ दूरी पर बैठे हुए मुनियों के पास जाकर धीरे से बोला
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