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करुणा के अमर देवता १७ सुनने की इच्छा करता है, पूछता है, उत्तर को सुनता है, ग्रहण करता है, तर्क-वितर्क से ग्रहण किये हुए अर्थ को तोलता है, तोलकर निश्चय करता है, निश्चय अर्थ को धारण करता है, अन्ततः उसके अनुसार आचरण करता है । आगे और फरमाया कि
विणएण णरो गंधेण चंदणं सोमयाइ रयणियरो। महुररसेण अभयं, जणपियत्त लहइ भुवणे ॥
-धर्मरत्न प्रकाश जैसे सुगंध के कारण चंदन, सौम्यता के कारण चन्द्रमा और मधुरता के कारण अमृत जगप्रिय है, ऐसे ही विनयग्रहण के कारण साधक लोगों में प्रिय बन जाता है।
आचार्य भगवंत की महान् कृपामयी उदारता को देखकर चरित्रनायक भी ज्ञान-खजाना बटोरने में पीछे नहीं रहे । अवकाश के अनुसार पृच्छा करते रहे । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, चन्द्र प्रज्ञप्ति, सूर्य प्रज्ञप्ति एवं भगवती सूत्र का सांगोपांग अध्ययन आचार्य देव के सान्निध्य में सम्पन्न किया। विविध नई धारणाओं का निश्चय किया। फलस्वरूप चरित्रनायक जी का ज्ञान कोष सुदृढ़ ठोस एवं तेजस्वी बना।
इस प्रकार यह वर्षावास तप-जप, अध्ययन-अध्यापन के रूप में बहुत ही सफल रहा । चतुर्विध संघ में अद्वितीय प्रभावना हुई । विदाई प्रदान करते हुए आचार्य प्रवर ने कहा था
'आगमबलिया समणा निग्गंथा" - व्यवहार सूत्र १० __अर्थात्-"श्रमण निर्ग्रन्थों का बल आगम (शास्त्र) ही है । इसीलिए ज्ञान-वृद्धि में अप्रमत्त रहे।"
श्रमण-जीवन में समत्वयोग का आदर्श आचार्य देव से आज्ञा प्राप्त कर चरित्रनायक श्री जी ने कुछ मुनियों के साथ विहार करते हुए बड़ी सादड़ी का चातुर्मास पूरा किया। तत्पश्चात् कपासन पधारे । उन दिनों कपासन का श्री संघ दो दलों में बँटा हुआ था। महेश्वरी एवं विप्र समाज में भी काफी विद्वेष चल रहा था, फूट के कारण पारस्परिक निंदा-बुराई एवं मिथ्यालोचना का बाजार अत्यधिक गरम था । महाराज श्री को जब आभ्यन्तर बीमारी का पता चला तो आपका मृदुमन स्नेह-संगठन की स्रोतस्विनी प्रवाहित करने में जुट गया। मधुर व्याख्यानों द्वारा दोनों पक्षों को समझा-बुझाकर संगठनात्मक अभिनव वातावरण तैयार किया। इसी प्रकार महेश्वरी एवं विप्रसमाज में भी पारस्परिक क्षमा याचना करवाकर बन्धुत्व भाव का सर्जन किया।
एकदा आप श्री बूंदी की ओर पधार रहे थे। संत जीवन परिषहों के कगार पर खड़ा है। पता नहीं किस समय में कठिनाइयां उभर आयें। पर संत-आत्मा गड़बड़ाती
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