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मुनि सभाचंद एवं उनका पपपुराण
__ मुनि सभाबन्द्र काष्ठासंधी साधु थे। उस समय देहली में मूलसंघ एवं कान्छासंघ दोनों की गादियां थी। अधिकांश अग्रवाल जैन समाज काष्ठासंघी भट्टारकों के माम्नाय में था। मूनि सभाचन्द अपने समय के प्रमुख सन्त थे । साहित्य सर्जन को मोर इनका विशेष झुकाव था ।
कमों का प्रयोग--पद्मपुराण विशालकाम पन्थ है जिसमें ११५ विषानक है 1 तथा दोहा, चौपई एवं सोरठा छन्दों की संख्या ६६.६ है । जैन कवियों ने हिन्दी पश्च में इतना विशाल अन्य बहुत कम निबद्ध किया है। पुराण में छन्दों की संख्या निम्न प्रकार हैप्रथम संधि (विधानक)
४६३ पा वितीय संधि (विधानक)
७७ पश्य तृतीय संधि (विघातक) चतुर्थ संधि (विधानक)
८५ पर पंचम विधानक से ११५ विधान तक ५७७० पय
योग ६६०६ उक्त पद्यों में अन्दानुसार संख्या निम्न प्रकार हैदोहा (दुहा)
१३६ सोरठा अडिस्ल कवित्त
चौपई
विधानक की समाप्ति दोहा, सोरठा, कवित्त एवं अडिल्ल इन चार छन्दों में से किसी एक के साथ की गयी है। लेकिन कहीं-कहीं इसका अपवाद भी है और विधानक की समाप्ति चौपई के साथ भी कर दी गयी है।
भाषा-मयपुराण की रचना देहली में की गयी थी इसलिए पुराण की पूल
६३६२
अग्रोह निकट प्रमू ठारे जोग, करे वन्दना सब ही लोग । अग्रवाल श्रावक प्रतिबोध, श्रेपक क्रिया बताई मोघ ।३।। पंच अणुव्रत सिंख्यामारि, गूनमत तीन कहे पुरधारि । बारहै मत बारहै सप कहै, भवि जीव सुणि पित्त में महे ।।३।। मिध्या धरम कियो प्रहां दूरि, जैन धरम प्रकास्या पुरि । घिसों दान देई सब कोई, सासत्र भेद सुणि समकिती होई ।।३।।