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प्रस्तावना
अर्थात् भगवान महावीर के निर्वाण के १२०० वर्ष प्रौर ६ महिने व्यतीत होने पर रविषेण ने पद्मपुराण की रचना समाप्त की थी। किन्तु स्वयं रविषेण ने वीर निर्धारण संवत् १२०४ एवं विक्रम संवत् ७३४ में पञ्चपुराण की रचना करना लिखा है । इसलिये मुनि समाचन्द ने अपने रखना नाक में वर्ष का मारों कर लिखा इसका कोई प्रौघिरप नहीं बतलाया।
मूनि सभाचन्द भट्टारक कुवरसेन के शिष्य थे । जो काष्ठा संघ-माथुर गच्छु-सेन गरणीय भट्टारक थे। भ० कमलकीति के दो शुभचन्द पोर कुमारसेन ये दो पट्ट शिष्य हए ।। इनके शिष्य थे सभाचन्द जो मुनि अवस्था में रहते थे। कुमारसेन का उल्लेख आमेर शास्त्र जयपुर की एक प्रशस्ति में भी माता है जो हेमकीति के शिष्य एवं भ० हेमचन्द के गुरु थे । मुनि सभानन्द के नाम का कोई उस्लेज नहीं मिलता है 1 फिर भी में भट्टारकीय परम्परा के मुनि थे इसमें कोई सन्देह नहीं है। जीवन परिचय
मूनि सभाचन्द की गृहस्थावस्था का क्या नाम था । उनके माता पिता कौन थे । उनका जन्म कहाँ हुमा तथा उन्होंने किस अवस्था मुनि दीक्षा प्राप्त की इसका काई उल्लेख नही मिलता है। रामाश्चन्द पद्मपुराण (हिन्दी) के अतिरिम और कौन २ से ग्रंथों के रचयिता बने इसका भी कोई उल्लेख नहीं मिलता। लेकिन इतना अवश्य कहा जा सकता है कि सभाधन्द अपनी गृहस्थावस्था में अग्रवाल जैन होंगे क्योंकि मापने ग्रंन्य प्रशस्ति में अग्रवाल जनों की उत्पत्ति का वर्णन किया है। कवि के अनुसार अग्रवाल जैन जाति की उत्पत्ति निम्न प्रकार हुई है -
एक बार लोहाचार्य ने अग्नोहा के निकट पाकर योग धारण कर लिया। अग्रोहा के सभी नगरवासी उनकी बंदना करने लगे। यहां उन्होंने अग्रवाल धावकों को प्रतिबोधित किया और श्रावकों की ५३ क्रियानों को पालने का उपदेश दिया। पञ्च प्रणवत, चार शिक्षावत एवं सीन गुणवतो के महत्व को समझाया । नगर में ब्बारत मिथ्यात्व को दूर किया और जैनधर्म के स्वरूप को सबको बताया । लोहा. बायं के उपदेश से सबने दशलक्षण धर्म, रत्नत्रय एवं व्रत विधान को अंगीकार किया । जीव दया का पालन होने लगा तथा सबने रात्रि भोजन न करने का नियम ले लिया और उघडिया में अगवेड (व्यालु) की जाने लगी ।
१. देखिये भट्टारक संप्रदाय-पृष्ठ संख्या २४ २. देखिये प्रशास्ति संग्रह पृष्ठ संचमा ८५