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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
और उन्हें सिद्ध करने के लिए उन्होंने साढ़े बारह वर्षों तक जो प्रयत्न किया और उसमें जिस तत्परता और अप्रमाद का परिचय दिया वैसा आज तक की तपस्या के इतिहास में किसी व्यक्ति ने किया हो वह दिखलाई नहीं देता । गौतम बुद्ध प्रादि ने महावीर के तप को देह-दुःख और देहदमन कह कर उसकी अवहेलना की है । परन्तु यदि वे सत्य तथा न्याय के लिए भगवान् महावीर के जीवन पर तटस्थता से विचार करते तो उन्हें यह मालूम हुए बिना कदापि नहीं रहता कि भगवान् महावीर का तप शुष्क देहदमन नहीं था । वे संयम और तप दोनों पर समान रूप से जोर देते थे । वे जान्ते थे कि यदि तप के प्रभाव से सहनशीलता कम हुई तो दूसरों की सुखसुविधा की प्राहुति दे र अपनी सुखसुविधा बढ़ाने की लालसा बड़ेगी और उसका फल यह होगा कि संयम न रह पाएग इसी प्रकार सौंयम के अभाव में कोरा तप भी पराधीन प्राणी पर अनिच्छा पूर्वक या पड़े देह कष्ट की तरह निरर्थक है ।
ज्यों-ज्यों संयम और तप की उत्कटता से महावीर अहिंसातत्त्व के अधिकाधिक निकट पहुंचते गए त्यों त्यों उनकी गम्भीर शान्ति बढ़ने लगी। जिसके प्रभाव से उन्होंने राग-द्वेष को सर्वथा क्षय कर केवलज्ञान की प्राप्ति कर सर्वज्ञत्व प्राप्त किया ।
भगवान् महावीर के समकालीन अनेकों धर्मप्रवर्तक थे उनमें से १ तथागत गौतमबुद्ध २. पूर्णकश्यप, ३. संजय बेलट्ठिपुत्त, ४. पकुधकच्चायन, ५. अजितकेस कम्बलि और ६. मंखली गोशालक के नाम मिलते हैं । (भगवान् महावीर इनके अलावा थे ) ।
उस समय के सर्व धर्म-प्रव्रतकों से भगवान महावीर के तप त्याग संयम तथा अहिंसा की जनता के मानस पर बहुत गहरी छाप पड़ी थी, क्योंकि उन्होंने राग-द्वेष आदि मलिन वृत्तियों पर पूर्ण विजय प्राप्त की थी, जिससे वे वीतराग बने थे । इस साध्य की सिद्धि जिस श्रहिंसा, जिस तप या जिस त्याग में न हो सके वह अहिंसा, तप तथा त्याग कैसा ही क्यों न हो पर आध्यात्मिक दृष्टि से अनुपयोगी है । ग्रतः प्रभु महावीर ने राग-द्वेष की विजय पर ही मुख्यतया भार दिया था और अपने आचरण में आत्मसात् कर उन्होंने अपनी काया, वाणी तथा मन पर काबू पाया था अर्थात् अपने दैहिक और मानसिक सत्र प्रकार के ममत्व का त्याग कर राग-द्वेष को सर्वथा जीतने से समदृष्टि बने थे । इसी दृष्टि के कारण भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट जैनधर्म का बाह्य और ग्राभ्यन्तर, स्थूल अथवा सूक्ष्म सब प्रकार का प्रचार साम्यदृष्टि-मूलक, अहिंसा की भित्ति पर ही निर्मित हुआ है । जिस आचार के द्वारा अहिंसा की रक्षा और पुष्टि न हो सके ऐसे किसी भी प्रचार को जैन परम्परा मान्य नहीं रखती ।
यद्यपि अन्य सव धार्मिक परम्पराओंों ने अहिंसा तत्त्व पर न्यूनाधिक भार दिया है पर जैन परम्परा ने इस तत्त्व पर जितना भार दिया है और उसे जितना व्यापक बनाया है, उतना भार और उतनी व्यापकता अन्य धर्मपरम्स में देखी नहीं जाती । जैनधर्म ने मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग और वनस्पति ही नहीं किन्तु पार्थिव, जलीय, आदि सूक्ष्मातिसूक्ष्म जन्तुओं तक की हिंसा से आत्मीपम्य की भावनाद्वारा निवृत्त होने के लिए कहा है। अहिंसा के इस उपर्युक्त विवेचन से भगवान् महावीर के प्रदर्श अहिंसामय जीवन का और उनके द्वारा प्रदत्त अहिंसा के उपदेश का पूरा-पूरा परिचय मिल जाता है ।
दीर्घ तपस्वी महावीर ने स्थान-स्थान पर तथा समय-समय पर अपनी अहिंसक वृत्ति का अपने
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