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दिगम्बर पंथ-एक सिंहावलोकन
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भी परिषह सहन न कर सके तो तीन वस्त्र धारण करे और चौथा वस्त्र प्रतिलेखना के लिर धारण करे।
तथा इसी पागम में पादेसण प्रकरण में कहा है कि-"हिरिमाणे वा जन्गिदे चाव अण्णगे वा तस्सणं कप्पदि वत्यादिगं पादचारित्तए ।” अर्थात् लज्जायुक्त साधु को वस्त्रादि रखो चाहिये।
फिर भी इसी प्रकरण में ऐसा लिखा है कि-"अलाबु-पत्त वा दारु-पत्त मट्रिग-पत्त वा अप्प-माणं अप्प-बीजं अप्प-रसिदं तथा अप्प-कारं पत्त-लामे सति पडिग्गहिस्सामि।" अर्थात मैं त बिका पात्र, लकड़ी का पात्र, मिट्टी का पात्र जिस में जीव नहीं है, बीज नहीं है, रस नहीं (सूखा हुआ है) और छोटे आकार का है । ऐसा पात्र मिलेगा तो ग्रहण करूंगा।
यदि जनसाध को वस्त्र पात्र ग्राह्य नहीं है तो प्राचीन आगमों में ऐसा क्यों लिखा और साध के लिये वस्त्र-पात्र का यदि एकदम निषेध है तो ऐसे उल्लेख प्रागमों में कदापि नहीं होने चाहिये थे ?
भावना अधिकार में भी ऐसा कहा है कि-"चरम चीवरधारी तेन चरमचेलगे ताजियो अर्थात -अन्तिम तीर्थ कर महावीर के शरीर पर वस्त्र था तो भी वे अचेलक जिन थे। मी अल्पवस्त्रधारी होने पर भी पागम में उन्हें अचेलक माना हैं।
सकतांग आगम के पुडरीक नामक अध्ययन में भी ऐसा कहा है कि-"ण कहेज्जो धम्मकहं वत्य-पत्तादि हेदुमिति ।" अर्थात् साधु को वस्त्र पात्रादि के प्राप्त करने के उद्देश्य से धर्मोपदेश नहीं करना चाहिये । शास्त्रकार का यहां कहने का प्राशय यह है कि साध नि:स्वार्थ भाव से धर्मोपदेश करे परन्तु स्वार्थवश कदापि न करे ।
वस्त्र-पात्र के विषय में निशीथ सूत्र में ऐसा प्रमाण है कि- “कसिणाई वत्थ कंबलाई जो भिक्खू पडिग्गहिदि उप्पज्जदि मासिगं लहंग इति ।" अर्थात्- सब प्रकार के वस्त्र कंबल (साध की मर्यादा से विशेष) ग्रहण करने से मुनि को लघुमासिक प्रायश्चित विधि करनी पड़ती है।
इस प्रकार प्राचीन प्रागमों में साधु-साध्वी के वस्त्र-पात्र ग्रहण करने का विधान है इसलिये आपका अचेलकपना या नग्नता का विवेचन योग्य कैसे माना जावे ?
आर्य शिव तथा अपराजित सूरि दोनों धुरंधर दिगम्बराचार्य इस प्रकार समाधान करते हैं
समाधान-पागम में प्रायिकाओं (श्रमणियों) को वस्त्रधारण करने की प्राज्ञा है और कारण की अपेक्षा से भिक्षों (निग्रंथ मुनियों) को भी वस्त्र-पात्र धारण करने की प्राज्ञा है। १. जो परिषह सहन नहीं कर सकते अथवा २. लज्जालु हों या ३. जिसके शरीर के अवयव ठीक न हों वह वस्त्रधारण कर सकता है ।
भावना अधिकार में महावीर के वस्त्रधारण करने का जो उल्लेख है, उन्होंने एक वर्ष तक वस्त्रधारण किया तदनन्तर उन्होंने उस का त्याग कर दिया था
प्रश्न -- इसी प्रकार प्राचीन प्राचासँग आदि अनेक प्रागमों में और भी अनेक स्थलों में साध के लिये वस्त्र-पात्र ग्रहण करने के उल्लेख पाये जाते हैं फिर इन का निषेध क्यों किया जाता है ?
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