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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
सृष्टि करके भी वह कभी सत्य नहीं बन सकता। प्राचीन जैनागमों का विच्छेद कहकर तथा उनके बदले में नवीन ग्रंथों की रचनाएं करने से भी वे अपने मनोरथ में सफल नहीं हुए। इस बात को स्पष्ट करने के लिये दिगम्बरपंथ पर एक स्वतंत्र ग्रंथ की आवश्यकता है। यहां तो इस ग्रंथ का यह विषय न होने से ऐतिहासिक दृष्टिकोण से मात्र सिंहावलोकन करके संतोष माना है।
(६) जिन प्राचीन जैन श्रुत श्वेतांबर मान्य आगमों को नकली और कपोलकल्पित मानकर इस महावीर की वाणी के संकलन रूप आगमो का एकदम विच्छेद मानकर और जिन्हें महावीर कथित एक अंग का भी पूरा ज्ञान नहीं था, अपने दिगंबर पंथ को ऐसे प्राचार्यों द्वारा रचित ग्रंथों को महावीर की वाणी के नाम से असली पागम मानकर जैन मान्यता का अपलाप कर रहे हैं। वे यह बात भुल रहे हैं कि उन्हीं की मान्यता के अनसार ये नव निमित दिगम्बर नथ आगम की कोटि में मान्य नहीं किये जा सकते-यथा दिगंबर धुरंधर विद्वान अपनी पुस्तक वर्ण, जाति और धर्म, पृष्ठ २८० में लिखते हैं कि
____ "पागम की व्याख्या सुनिश्चित है। जो केवली या श्रृतकेवली (चौदह पूर्वधर) ने कहा हो या अभिन्न दसपूर्वी ने कहा हो वह प्रागम है । तथा उनका अनुसरण करने वाला अन्य जितना कथन है वह भी आगम है।"
__परन्तु एक भी ग्रंथकर्ता दिगम्बराचार्य न तो चौदह पूर्व के ज्ञाता, न ग्यारह अंगों के ज्ञाता और न ही अभिन्न दस पूर्वी थे । धरसेनादि की गुरु परम्परा क्या थी और वे लोग कितने श्रुत के ज्ञाता थे उसका भी कोई प्रमाणिक लेख दिगम्बरों के पास नहीं है। ऐसी अवस्था में दिगम्बर नथ पागम की कोटि के नहीं हैं।
यदि आगम विच्छेद की मान्यता दिगम्बरों की सच्ची हो तो कहना होगा कि इनकी धारणा के अनुसार श्वेतांबर जैनों के पास असली पागम साहित्य नहीं है और इसकी मान्यता के अनुसार इनका ग्रंथ साहित्य भी आगम नहीं है इसलिये महावीर की वाणी का एकदम प्रभाव हो जाने से दिगम्बर मत और सिद्धान्त भी स्वकपोलकल्पित सिद्ध हो जाता है । यह है इनकी ऊटपटांग मान्यता का परिणाम ।
(७) वास्तव में दिगम्बरों ने प्राचीन विद्यमान आगमश्रु त का बहिष्कार इसलिये किय कि इसमें मुनि के लिये वस्त्र-पात्र आदि उपकरणों का प्रतिपादक है और इनके एकान्त नग्नत्व वे कदाग्रह का पर्दाफ़ाश करते हैं । इनकी एकान्त नग्नत्व को मान्यता ने महावीर आदि तीर्थ करों के सिद्धान्तों को कितना विकृत बना दिया उसका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
भगवान् महावीर शासन की मान्यता दिगम्बर पंथ की मान्यता १. स्त्री, पुरुष एवं कृत्रिम; नपुसक-भव्य १. मात्र भव्यपुरुष ही पांच महाव्रतधारी
मनुष्य पाँच महाव्रतधारी होकर मुक्ति तथा निर्वाण (मोक्ष) पा सकता है । स्त्री प्राप्त करने का सामर्थ्य रखते हैं।
नपुंसक नहीं। २. केवलज्ञान पाने के बाद भी केवली खाते २. केवली खाते-पीते नहीं। निर्वाण पाने से पीते हैं । यानी कवलाहार करते हैं। पहले मानव शरीर में रहते हुए भं
निराहार रहते हैं।
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