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श्री वीरचन्द राघवजी गांधी
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जब आप पहली बार विदेश गये थे और धर्मप्रचार करके देश में वापिस पाये, तब लोगों के हृदय में यह विश्वास जमा हुआ था कि किसी भी कारण से यूरोप जाने वाला व्यक्ति धर्म से भ्रष्ट हो जाता है । अतः बम्बई का वातावरण क्षुब्ध था। उन दिनों बम्बई में मोहनलालजी महाराज विद्यमान थे । जब पंजाब में विजयानन्द सूरि जी के पास यह समाचार पहुंचा तब उन्होंने यह कार्य श्री मोहनलालजी के निर्णय पर छोड़ दिया। महाराज ने समुद्र पार जाने के लिये श्री वीरचन्द गाँधी को श्री जिनेन्द्र भगवान की एक स्नात्रपूजा पढ़ाने का आदेश दिया। सबने यह निर्णय स्वीकार कर लिया और वातावरण में शांति स्थापित हुई।
प्रापके बहुत से भाषण छप चुके हैं और वे Jain Philosophy, Yoga Philosophy, तथा Karma Philosophy नामक पुस्तकों में संगृहीत हैं। उनके भाषण जैनधर्म, दर्शन और प्राचार तक ही सीमित न थे। उन्होंने भारत की चमत्कार विद्या (Occulism in India) ईसा मसीह के धर्म का स्याद्वाद मतानुसार अर्थ, भारत का प्राचीनधर्म, गायन विद्या, अमेरिका की स्त्रियों को टोपियों में पक्षियों के पंख नहीं पहनने चाहिये, समाचार पत्र तथा नाटक का सम्बन्ध । ये तीनों भाषण केवल स्त्रियों की सभा में दिये गये थे । अमेरिकन राजनीति पर वर्तमान सामाजिक कानूनों का प्रभाव, यूरोपीय दर्शन की तीन मौलिक मिथ्या धारणाएं, हिन्दुओं का सामाजिक व्यवहार और रीति-रिवाज, बुद्धधर्म, भारत की राजनैतिक अवस्था, हिन्दू, मुस्लिम और अंग्रेजी राज्य में भारत में नारी का स्थान, भारत की अमेरिका को देन; इत्यादि विविध विषयों पर व्याख्यान दिये थे। उनके विचार सुनकर जनता को अभूतपूर्व प्रानन्द प्राता था। उन्हें १४ भाषानों का ज्ञान था।
उन्होंने एक अनुदित पुस्तक प्रकाशित की थी जिसका नाम था 'Uuknown life of Jesus Christ' | इसी का शुद्ध अनुवाद प्रकाशित किया है। भारत के निवासी होने के कारण उन्होंने Himis मठ का अपनी पुस्तक में अत्यन्त सुन्दर चित्र दिया है। इस मठ से Notovitch को इस पुस्तक की पांडुलिपि मिली थी। उन्होंने और भी बहुत से चित्र दिये हैं और एक अत्यन्त विद्वतापूर्ण प्रस्तावना भी लिखी है। इसी पुस्तक के आधार पर हमने ये ईसा के जीवन के १८ वर्ष भारत में निवास करने का उल्लेख किया, जिसमें ६ वर्ष तक उसने जैन साधुओं के पास रह कर जैनधर्म का ज्ञान प्राप्त किया था । देखें इसी पुस्तक का अध्याय-२।
श्री वीरचन्द गांधी एक आदर्श चारित्र के व्यक्ति थे। धर्मवीर भी थे और कर्मवीर भी थे। कर्तव्यपरायणता उनमें कूट-कूटकर भरी हुई थी। वे जीवन और कर्तव्य को सहयोगी समझते थे । वे नम्र और मिलनसार थे। दिन रात काम करने में वे कभी घबराते नहीं थे। संभव है कि परिश्रम की अधिकता ही उनकी अकाल मृत्यु का कारण बनी हो। मरतेदम तक भी समाज सेवा में कटिबद्ध रहे उन्होंने अपना समस्त जीवन लोकोपकार में बताया। उनके सम्मुख समाज-देश सेवा और विश्व प्रेम का अनुपम प्रादर्श था। १८९७ ई० में भारत में दुष्काल पड़ा था, तब लाखों मनुष्य अन्न के प्रभाव से काल का ग्रास बन गये। श्री गांधी उस समय अमेरिका में थे। वहाँ से उन्होंने सानफ्रान्सिसको शहर से मक्की का एक भरा हुअा जहाज कलकत्ता में भिजवाया । वह मक्की ग़रीबों में बाँट दी गई तथा भिन्न-भिन्न भागों से चालीस हजार रुपया नकद भी भिजवाया।
1. आत्माराम जन्म शताब्दी स्मारक ग्रंथ (गुजराती) पृ० ४२ । 2. श्री वीरचन्दभाईना पत्रो-श्री मात्मानन्द जन्म शताब्दी र (गुजराती) प० ६० ।
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