Book Title: Madhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi

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Page 610
________________ आचार्य विजयवल्लभ सूरि ५६१ वि० सं० १९६७ में आपने महेंद्रलाल और रमणीककुमार को गुजरांवाला में बसाती (सौदागरी) की थोक दुकान करा दी जो दिन दुगनी और रात चौगनी तरक्की करते हुए पूर्ववत समृद्धि सम्पन्न हो गये। श्रीसंघ सेवा तथा गुरुभक्ति १-पिताजी के स्वर्गवास के बाद आप उनके चौधरी पद पर आसीन हुए। २-वि० सं० १९६७ से १९९७ तक श्री विजयनन्द श्वेतांबर जैन (श्री संघ की कार्यकारिणी कमेटी के पाप सदस्य, ऑनरेरी मंत्री, कोषाध्यक्ष तथा लेखानिरीक्षक (माडीटर) रहे। ३-आर्थिक परिस्थितियों की कटो-कटी और परेशानी में भी आपने संघ की सेवानों से मुंह नहीं मोड़ा। ४-प्राचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि जी के तो आप अनन्य भक्त थे। उनके आदेशों को आप तीर्थंकर के आदेश के तुल्य मानते थे। जब कभी और जहाँ कहीं भी आचार्यदेव ने आपको धार्मिक कार्यों के लिये बुलाया तभी जा पहुँचे। अपने निजी खर्चे में कटौती करके भी आप खुलेदिल धार्मिक कार्यों में खर्च करते थे। ५-ज्योतिष विद्या के तो पाप पारगामी थे। प्राचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि जी भी प्रतिष्ठानों आदि के मुहूर्त प्रापके परामर्श से ही निश्चित करते थे। इस समय पंजाब में आपकी तुलना करने वाला एक भी ज्योतिषी नहीं था। यह आपका व्यवसाय नहीं था इसे आपने धनोपार्जन का साधन कभी नहीं बनाया था। ६-प्राचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि जी की नष्ट जन्मकुंडली अापने तैयार की थी जो भृगुसंहिता से बराबर मेल खाती थी। ७- श्री आत्मानन्द जैनपंचांग जो श्री हस्तिनापुरजैन श्वेताम्बर तीर्थ समिति लगभग चालीस-पंतालीस वर्षों से प्रतिवर्ष अाज तक प्रकाशित करती आ रही हैं । प्रारंभ से लेकर वि० सं० २०१० तक (जीवन के अन्तिम श्वासों तक) आप ही बनाकर श्री हस्तिनापुर जैन श्वेतांबर तीर्थ समिति को प्रकाशनार्थ भेजते रहे और पंचांग के प्रकाशन में जो भी खर्चा पाता था उसको हस्तिनापुर तीर्थ समिति पर न डालकर अपने मित्रों से सब खर्चा करवा देते थे । ८-आपने अपने जीवन में हजारों रुपये धार्मिक कार्यों में खर्च किये। --श्री जैन श्वेतांबर मूर्तिपूजक संघ ने आपकी शासन-सेवाओं के उपलक्ष में एक वृहत् सम्मान समारोह में वि० सं० १९८६ (ई० स० १६२६) में गुजराँवाला में प्रापको दो तोले का स्वर्णपदक तथा अभिनन्दन पत्र भेंट किया था और पापका तैलचित्र श्रीसंघ के कार्यकारिणी के कार्यालय में लगाया था। स्वर्ण पदक पर ये अक्षर अंकित थे Presented to Lala Dinanath Duggar Jain by Shri Jain Sangh Gujranwala for his Meritorious and Untiring services. धार्मिक जीवन आपने जिनपूजा, प्रतिक्रमण, नवपद अोली आराधना और अनेक बार सपरिवार तीर्थयात्रायें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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