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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
था। जो कोई भी अपनी फरियाद आपके पास लेकर आता था। आप उसे सहानुभूतिपूर्वक सुनते थे और उसे यथायोग्य तन, मन, धन से भी मदद करते थे।
___२-दुकान का बहीखाता, हिसाब-किताब अपने ही हाथों से करते थे। दुकान की गद्दी पर स्वयं बैठना तथा तिजोरी की चाबियां भी आप अथवा आपके सुपुत्र संभालते थे।
३-बहुत बड़े परिवार तथा बाहर से आने वाले व्यापारियों केलिये भोजन की व्यवस्था, गाय, भैंसों की सार संभाल, दूध, दही, मठा बिलोने की सब व्यवस्था घर की स्त्रियां स्वयं करती थीं। ये दोनों कार्य नौकरों से कभी नहीं करवाये जाते थे । आपका विश्वास था कि दुकान का हिसाब-किताब तथा भोजन की व्यवस्था पराये हाथों में जाने से कभी भी इज्जत प्राबरु में हानि संभव है।
स्वर्गवास-विक्रम संवत १९६६ मार्गशीर्ष मास में आपका जालंधर में स्वर्गवास हो गया। सरकार
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चौधरी दीनानाथ जी दगड़ आप बापू मथुरादास जी के इकलौते पुत्र थे। पापका जन्म माता हरकौरजी की कुक्षी से वि० सं० १९४३ मिति चैत्र कृष्णा १४ बुधवार को गुजरांवाला में हुआ। आपकी माता आपको
१७ दिन का छोड़कर स्वर्ग सिधार गई थी। प्रापका लालन पालन धायमाता ने किया। आपके तीन विवाह हुए, पहली पत्नी सुश्री धनदेवी की कुक्षी से हीरालाल (इस ग्रंथ के लेखक) का जन्म मिति द्वि० ज्येष्ठ कृष्णा ५ वि० सं० १९६१ को गुजरांवाला में हुआ - हीरालाल को ६ दिन का छोड़कर उसकी माता का देहांत हो गया। इस नवजात शिशु का पालन पोषण इसकी नानी ने किया।
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पश्चात् अन्य दो पत्नियों से पांच पुत्रों तथा दो पुत्रियों का जन्म हुआ। जिनमें से दो पुत्रों का देहांत हो चुका है। बाकी सब अपने-अपने परिवारों के साथ विद्यमान हैं। पिताजी की मृत्यु के बाद वि० सं० १९८६ तक बरतनों का व्यवसाय ही करते रहे । आर्थिक स्थिति एकदम नाजुक हो जाने से आपको व्यवसाय बन्द करने
केलिये बाध्य होना पड़ा और सं० १९८६ में व्यवसाय श्री दीनानाथ जी दूगड़ बन्द करके आपने एक अनाज की माढ़त की दुकान में नौकरी कर ली। श्री हीरालाल जी वि० सं० १९८१ में श्री आत्मानन्द जैनगुरुकुल गुजरांवाला में जैनदर्शन के अभ्यास के लिए प्रविष्ट हो गये। आपके दो पुत्र श्री लखमीलाल व शादीलाल ने भी नौकरी कर लीं। छोटे पुत्र महेंद्रलाल व रमणीककुमार बच्चे होने से स्कूल में शिक्षा प्राप्त करते रहे।
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