________________
५५८
मध्य एशिया मोर पंजाब में जैनधर्म
एकदा एक व्यक्ति ने प्राकर प्रापको गालियों की बौछार कर दी। आप सुनकर मुसकराते ही रहे । अन्त में वह खिसया गया और बोला-"प्रो कम! तू है ही कर्मा सड़या। तुम कर्मचद नहीं हो।" पंजाबी भाषा के इस शब्द का अर्थ होता है-भाग्यहीन, दुर्भागी, हीनपुण्य, बबनसीम इत्यादि । लाला जी सुनकर खिलखिलाकर हंस पड़े और बड़े गंभीर स्वर में कहने लगे-हे मेरे परम हितैषी महापुरुष ! तुम्हारे जैसा मेरा शुभेच्छुक प्राज ही मुझे मिला है । क्योंकि तुमने मेरे कर्मों के नष्ट हो जाने के लिये अपनी प्रांतरिक भावना से कामना की है । प्रामो मैं तुम्हारे मुह को खांड-शक्कर से भर दू । सामने वाला व्यक्ति लज्जित होकर और खिसियाना होकर जिधर से आया था उधर चल दिया । आपका स्वर्गवास वि० सं० १९६१ मिति प्राषाढ़ कृष्णा १३ को गुजराँवाला में हो गया ।
बापू मथुरादास जी दूगड़ चौधरी श्री मथुरादास जी शास्त्री कर्मचन्दजी दूगड़ के छोटे भाई थे। आपका जन्म वि० सं० १८८८ में माता सुश्री भोलादेई की कुक्षी से गुजरांवाला में हुआ। आपके श्री दीनानाथ जी इकलौते पुत्र थे।
व्यापार व्यवसाय-आपने पहले कपड़े की, फिर सराफे की स्वतन्त्र, उसके बाद धातु के बरतनों के थोक व्यवसाय की दुकान लाला गंडामल लोढ़ा की साझेदारी में वि० सं० १९१५ से १९६४ तक गुजरांवाला में की। बाद में साझेदारी से अलग अपने सुपुत्र श्री दीनानाथ जी केसाथ स्वतन्त्र रूप से यही व्यवसाय चाल रखा जो जीवन के अंतिम समय तक चालू रहा । प्रापकी धर्मनिष्ठा, सूझ-बूझ, एकदाम, सच्चाई और सही तोल के कारण कुछ ही वर्षों में व्यापार काबुल से दिल्ली, काश्मीर, सिंध, पंजाब के पार्वतीय प्रदेशों तक फैल गया। थोड़े ही समय में आपकी गणना पंजाब के अग्रगण्य व्यापारियों में होने लगी और लखपतियों का स्थान प्राप्त कर लिया। यह समय कल-कारखानों का नहीं था। माल की यातायात के साधन भी सीमित थे। फिर भी दूर-दूर के व्यापारी आपके यहां माल खरीदने पाते थे। कारीगर लोग धातुओं की टूट-फूट को भट्टी में गलाकर हाथों की कारीगरी से नये बरतनों का निर्माण करते थे। कारीगरों के साथ आपका पिता तुल्य वात्सल्य था। इनकी सार संभाल पाप अपने पुत्रवत सदा करते थे । दुःख और संकट के समय प्राप उनके मसीहा थे।
परोपकारीमय जीवन-आप विलक्षण बुद्धि के धनी तथा अलौकिक सूझ-बूझ के मालिक थे। दीन दुःखियों तथा साधारण स्थिति के साधर्मी भाइयों के उद्धार केलिये आप गुप्त रूप से आर्थिक सहायता देते थे । साधर्मी भाइयों को व्यवसाय में लगाने के लिए उनको प्रशिक्षण के लिए अपनी दुकान पर नौकरी देकर रखते थे और प्रशिक्षण पा लेने के बाद जो साधनहीन थे उन्हें आर्थिक सहयोग से धन्धे में जोड़ देते थे । 1. कर्मा सड़या का एक अर्थ यह भी होता है कि "कि जिसके कर्मक्षय होकर झड़ चुके हैं।"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org