Book Title: Madhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi

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Page 638
________________ श्री जगदीशमित्र जगदीशमित्र जैन पट्टी जिला अमृतसर आपका ई० स० १६१७ को पट्टी, जि० श्रमृतसर में पण्डित श्री श्रमीचंद जी के परिवार में - ला०मूलामल के पुत्र श्री चुनीलाल जैन गोत्र नाहर के घर जन्म हुआ - माता का नाम रलीबाई था । शिक्षा : - ४.४१६२७ ई० को प्रविष्ठ होकर ४.४.१९३४ ई० को श्री ग्रात्मानंद जैन गुरुकुल से विनीत ( मैट्रिक समकक्ष) परीक्षा उतीर्ण कर निकले । सामान्यतः हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत, पंजाबी और गुजराती जानते हैं- ज्योतिष हस्तरेखा विज्ञान, आयुर्वेदिक प्राकृतिक चिकित्सा, स्वमूत्र चिकित्सा, यंत्र-मंत्र आदि में रुचि है । व्यवसाय :- १६.६. १६३६ ई० में Dal Chand Jain Industrial. School. Ferozepur से Tailoring सीखकर स० ई० १६४१ में दुकान खोली - " शुद्ध खादी के वस्त्र Free सीते थे” । श्राजीवन ब्रह्मचर्य व्रत :- - ११.११.१६४१ ई० को ज्ञानपंचमी के दिवस श्रीसंघ पट्टी के समक्ष प्राचार्य श्री विजयवल्लभ सूरीश्वर जी से आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत लिया । ५८६ - सेवायें :- १ - १९४४ ई० में, श्रीसंघ पट्टी के श्री श्रात्मानन्द जैन कन्या सिलाई स्कूल में सिलाई सिखाते रहे । २. १९५२ ई० में ' कताई मण्डल संस्था में सेवा करते रहे । ३. १९५४ ई० से १९५८ ई० तक भूदान यज्ञ में गाँव-गाँव प्रचार करते रहे । ४. १६५८ ई० में श्री महावीर जैनधर्म पाठशाला पट्टी में खोली । कारणवश दो वर्ष बाद बंद हो गई । पुनः १९६३ से १९७६ ई० तक अध्यापन का कार्य करते रहे । सामायिक, नियम : - ४.४.१६२७ ई० से खद्दरधारी, रात्रीभोजन और कंदमूल का त्याग, नवकारसी, चतुर्दशी का उपवास शुरु कर एक घंटा मौन और स्वाध्याय करते हैं । यात्रायें:: - ४० के लगभग पालीताना २० के करीब सम्मेदशिखर, चार-पाँच बार बंबई कच्छ, बड़ौदा खम्भात भद्रेश्वर और जैसलमेर की भी यात्राएं की हैं । श्राचार्य श्री विजयवल्लभ सूरिजी महाराज के साथ विहार में महीनों घूमे हैं । विशेष तप और जाप :- - ( १ ) संखेश्वर तीर्थ पर ४१ दिन में मौन और मात्र खीर सेएकासने में १४ लाख महामंत्र नवकार का जाप किया । (२) ई० स० १६६३ में बनारस के भेलूपुरा मंदिर में तीन बार २१-२१ उड़द से प्रायंबिल करके जाप किया (३) बनारस में कमर तक गंगा के पानी में खड़े होकर सरस्वती मंत्र का जाप किया । (४) देहली में बड़ी दादा वाड़ी महरौली में २१-२१ दिन में तीन बार सरस्वती का जाप किया । (५) हरिद्वार, राजगृही, जगरावाँ समाधि पर रायकोट समाधि पर, और पट्टी में प्राय: हर चतुर्मास में नवीन श्रौर कठिन तपस्या करते रहे हैं । (६) उपधान तप, (७) ज्ञानपंचमी तप (८) सिद्धाचल पर १९७६ ई० में नवाणु यात्रा, (६) आयंबिल तप (१०) नवस्मरण, नवकार, ऋषिमण्डल और गौतमस्वामी की मालाएं तो जीवन का अंग बन गई हैं । (११) स० ई० १६७८ में श्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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