Book Title: Madhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi

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Page 654
________________ लाला जगन्नाथ नाजर (२) इधर लाला ठाकुरदास जी ने स्वामी दयानंद जी को शास्त्रार्थ करने के लिये दो रजिस्ट्री नोटिस लाहौर में दिये और वे स्वयं भी लाहौर में दयानंद जी से साक्षात करने के लिये गये । किंतु लाला जी के लाहौर पहुंचने पर स्वामी जी अमृतसर को रवाना होलिये। लाला जी उनके पीछे अमृतसर गये । वहाँ से स्वामी जी दिल्ली को चल दिये, जब लाला जी दिल्ली पहुंचे तो स्वामी जी जोधपुर को रवाना हो गये । लालाजी उन के पीछे जोधपुर गये तब स्वामी जी अजमेर जा पहुंचे और वहाँ उनके रसोइये ने उन्हें विष देकर उनकी जीवन लीला समाप्त कर दी । सरस्वती जी के दाह संस्कार के बाद लाला जी अहमदाबाद गये वहाँ जैनमुनि गणि मूलचंद जी महाराज के दर्शन करके गुजरांवाला वापिस लौट आये । लालाजी ने स्वामी जी को कई नोटिस दिये । शास्त्रार्थ करने के आह्वान भी किये और उनके पीछे-पीछे भी गये किंतु स्वामी जी सदा दाव देकर बचते रहे। अंत में गुजरांवाला में प्राकर लाला ठाकुरदास जी ने स्वामी दयानंद सरस्वती को दिए गये पत्रो-नोटिसों का संग्रह कर एक पुस्तिका के रूप में प्रकाशन किया, जिसका नाम 'दयानन्द मुख चपेटिका' रखा । लाला जी गुजराँवाला में वापिस लौटकर सदा अपने घर में ही रह कर प्रात्म साधना में लगगये और मृत्यु के बाद ही घर से उनकी अरथी निकली। मुन्हानी लाला जगन्नाथ जी 'नाजर' बीसा ओसवाल (भाबड़ा) मुन्हानी गोत्रीय लाला मूलराज (शाह) के द्वितीय पुत्र लाला 'नारायणदास जी के तीन पुत्र थे, श्री जगन्नाथ, श्री भगतराम, श्री जंगीरी लाल । लाला जगन्नाथ जी 'नाजर' के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त थे। लाला जगन्नाथ जी की गल्ले (अनाज) की आढ़त की दुकान थी। पापका जन्म वि० सं० १९२२ में गुजरांवाला में हुआ तथा देहांत वि०सं० १९६४ में ७२ वर्ष की आयु में गुजरांवाला में हुआ । मृत्यु से चार वर्ष पहले मापने अन्नादि खाने का त्याग कर दिया था। मात्र प्रतिदिन तीन पाव दूध ही का पाप पान करके अपने आहारकी पूर्ति कर लेते थे। नाजर जी का जनशासन सेवा में अनन्य योगदान वि० सं० १९६४ की बात है कि गुजरांवाला में स्व० जैनाचार्य श्री विजयानंद सूरिजी के समाधिमंदिर की प्रतिष्ठा थी । उस समय श्वेतांबर जैन मूर्तिपूजक आचार्य विजयकमल सरि जी, उपाध्याय वीरविजय जी, मुनि लब्धिविजय जी (पश्चात् विजयलब्धि सूरि जी) मुनि ललित विजय जी (पश्चात् प्राचार्य विजयललित सूरि जी) आदि १३ साधु विराजमान थे। प्रतिष्ठा के सब कार्यक्रमों में गुजरांवाला के हिंदू सनातनधर्मी भी मूर्तिपूजक होने के कारण सहयोगी थे। यह मैत्रीपूर्ण वातावरण ढूंढक मतानुयायियों को अखरने लगा-कारण यह था कि पूज्य आत्माराम जी (विजयानंद सूरि) ने ढूंढक मत का त्याग कर श्वेतांबर जैन मूर्तिपूजक (पूजेरा) मत को स्वीकार किया था इसलिए वे लोग इस कार्य में विघ्न डालने केलिए उतारु हो गए। उन्होंने पूज्य आत्माराम जी द्वारा रचित 'प्रज्ञानतिमिर-भास्कर' नामक पुस्तक में से कुछ ऐसे प्रकरणों का उर्दू भाषा में तरजमा करके छोटी-छोटी पुस्तिकामों के रूप में प्रकाशित करके सनातन धर्मियों को भड़काया। 1. यह ग्रंथ स्वामी दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश में जैनधर्म पर किये गये आक्षेपों के उत्तर में मालोचना रूप लिखा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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