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हुआ । प्रापके पूज्य पिता स्व० लाला खेतूराम जी जहाँ गुरु श्रात्म और वल्लभ के शेदाई थे वहाँ महासभा के स्थापना काल से ही इसके दृढ़ स्तम्भ भी थे । अनेक वर्ष वे महासभा के महामंत्री रहे तो १९३२ में महासभा के नारोवाल अधिवेशन के अध्यक्ष भी । सत्यपाल जी की धर्मकार्यों में अनुरक्ति और समाज सेवा की भावना उनके पिता जी की ही देन है ।
सत्यपाल जी ने बी० ए० की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद व्यवसाय में प्रवेश के साथ-साथ सामाजिक कार्यों में योगदान देना शुरु कर दिया । १६५६ से प्राप श्री श्रात्मानन्द जैन महासभा की कार्यकारिणी के सदस्य हैं । लहरा में गुरु श्रात्म कीर्तिस्तम्भ के निर्माण तथा श्रात्मजन्म---
स्मारक रूप
जयन्ती वार्षिक समारोह के आयोजन में आप का महत्त्वपूर्ण योगदान है । उर्दू भाषा में लेखिनी पर आपका अच्छा अधिकार है और अब हिन्दी में भी धाराप्रवाह लेख लिखते हैं । श्री हस्तिनापुर जैनश्वेतांबर तीर्थं प्रबंधक समिति, माता चक्रेश्वरी तीर्थधाम समिति सरहिन्द, श्री आत्मानन्द जैनकालिज प्रबंधक समिति अंबाला शहर के श्राप सदस्य हैं। श्री आत्मवल्लभ स्मारक शिक्षण निधि के भी आप ट्रस्टी हैं। पंजाब श्रीसंघ में आपका अपरिहार्य प्रतिष्ठित स्थान है । लाला ठाकुरदास जी मुन्हानी
वंश परिचय – बीसा प्रोसवाल (भावड़ा) मुन्हानी गोत्रीय लाला जौहरीशाह आदि तीन भाई अपने परिवार के साथ सोहदरा नगर जिला स्यालकोट में रहते थे । जौहरीशाह के दो पुत्र लाला खुशहालशाह व लाला भवानीशाह अपने परिवारों के साथ सोहदरा गुजरांवाला में आकर प्राबाद हुए। लाला खुशहालशाह के तीन पुत्र थे । सबसे बड़े का नाम लाला मूलेशाह था । लाला मूलेशाह के चार पुत्र थे । १. लाला ठाकुरदास, २. लाला नारायणदास, ३. लाला कालूराम, ४. लाला भोलाराम ।
मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
लाला ठाकुरदास का परिचय
आपका जन्म गुजरांवाला में लगभग वि० सं० १८८० में और देहाँत वि० सं० १९७० में नब्बे वर्ष की आयु में हुआ। आप मुनि श्री बूटेराय जी तथा जैनाचार्य श्री विजयानन्द सूरि ( श्रात्माराम ) जी एवं प्रार्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती के समकालीन थे । आप जैनागमों आदि जैन सिद्धांत ग्रंथों के प्रौढ़ विद्वान थे। सारे शास्त्र आपको अन्तिम समय तक कंठस्थ थे । आप आजीवन बालब्रह्मचारी थे ।
जब दयानंद सरस्वती ने भारतवर्ष में अपने नये पंथ प्रार्यसमाज की स्थापना की तब उन्होंने 'सत्यार्थ प्रकाश' नामक ग्रंथ की रचना भी की थी। उसके १२वें सम्मुलास में उन्होंने निराधार, अनुचित, अनर्गल, कटु प्रालोचना जैनधर्म की भी की ।
( १ ) उस समय श्री विजयानंद सूरि (प्रात्माराम ) जी ने उसके उत्तर में अज्ञान तिमिरभास्कर नामक ग्रंथ की रचनाकर उसे प्रकाशित कराया तथा सरस्वती जी को शास्त्रार्थ करने का चालेंज भी दिया । परन्तु स्वामी दयानंद का अजमेर में देहांत हो जाने के कारण दोनों में शास्त्रार्थ न हो पाया ।
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