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श्री वीरचन्दगांधी और श्री विवेकानंद की तुलना
का पत्र दिखाया। इसमें उसने लिखा था कि गांधी जी की बताई हुई विधि से नवकार मंत्र के जाप से जो सिर की पीड़ा दूर हो गई थी, वह सम्भवतः किसी भूल से थोड़ी मात्रा में पुनः प्रारम्भ हो गई है। अतः उचित परामर्श दें । गांधी जी ने उस समय मुझे एक अमेरिकन बहन की फोटो भी दिखाई (संभवतः मिस हावर्ड)। जिसमें वह भारतीय वेश में ऊनी प्रासन पर बैठी और मुंहपत्ती हाथ में लिये सामायिक कर रही थी। स्थापनाचार्य सामने रखा था और हाथ में माला थी। गांधी जी ने मुझे बताया कि श्री विजयानन्द सूरि की विशेष सूचनाओं के अनुसार एक मास तक जाप करने के पश्चात् उस बहिन को जातिस्मरण ज्ञान (पहले जन्म का ज्ञान) हो गया और उसने भारत में अपने पूर्वजन्म की कई बाते बताईं।
श्री वीरचंद गांधी और श्री विवेकानन्द की तुलना ऋषि विवेकानन्द प्रार्य तत्त्वज्ञान की वेदान्त-दर्शन समझने केलिए चिकागो की धर्म परिषद् में गये। वे ४० वर्ष को अवस्था में ही सन् ईस्वी १६०२ में मृत्युपाये । उस समय अमेरिका के प्रसिद्ध पत्र "बेनर आफ लाईट" ने तुलना करते हुए लिखा था
१. जैन तत्त्वज्ञानी वीरचंद की लेखनशक्ति एवं वक्तृत्वशक्ति में जो विचारों की नवीनता थी वह विवेकानन्द में न थी।
२. स्वामी विवेकानन्द सन्यासी थे और मांसाहारी थे। पर श्री वीरचंद गृहस्थ थे, धार्मिक जैन की भांति जीवन व्यतीत करनेवाले निर्दोष वनस्पति पाहारी थे।
३. भारत के दोनों उत्तम रत्नों के लिए नीचे लिखी बातें कही जा सकती हैं
(१) विविध धर्मों की चर्चा करने के लिए सन् ईस्वी १८६३ में होने वाली चिकागो की धर्मपरिषद् में गये और प्रशंसा प्राप्त की।
(२) दोनों लोकप्रिय व्याख्यानकार थे। अमेरिका के श्रोताओं की ओर से उन के सम्बन्ध में प्रशंसा के वचन सुनाई पड़ते हैं।
(३) जिन लोगों ने इनके भाषणों को सुना, उन्होंने इनके सिद्धांतों को प्रीतिपूर्वक स्वीकार किया और जिन्होंने इनके सिद्धांतों का यथार्थ निर्णय करने के लिए विचार किया उनके मन के ऊपर इनके विचारों की छाप आजतक भी विद्यमान है।
(४) दोनों ने थोड़ी आयु पाई, विवेकानन्द ४० वर्ष की आयु में और वीरचन्द ३७ वर्ष की प्राय में स्वर्गस्थ हुए । यदि अधिक समय तक जीवित रहते तो हमारा भविष्य कुछ और सुधर जाता।
(५) दोनों ने पवित्र भारत भूमि में ही प्राकर प्राण त्याग किये। विवेकानन्द ने सन् १६०२ में वेलूर मठ में और वीरचंद ने सन् ईस्वी १६०१ में।
(६) स्वामी विवेकानंद के प्रबल विचारों केलिये उनके शिष्यमंडल (मभेदानंद आदि) ने रामकृष्ण सोसाइटी आदि अनेक संस्थाएं स्थापित की। परन्तु शोक कि वीरचन्द के प्रबल विचारों के प्रभाव से कोई जैन संस्था स्थापित न रह सकी। मात्र यही बात नहीं है बल्कि वीरचंद के स्मरणार्थ कोई संस्था स्थापित करने का प्रयत्न ही नहीं किया गया।
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