Book Title: Madhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi

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Page 601
________________ ५५२ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म बाले व्यक्तियों के होते हैं । उदारचेताओं केलिये सारा विश्व ही एक कुटुम्ब है।"1 - "मुझे अपने सामने उपस्थित अमेरिकन ईसाई भाई-बहनों से तथा उनके द्वारा समस्त ईसाई संसार से कुछ निवेदन करना है . इस देश में आने के समय से मैं सुन रहा हूँ कि ईसाई संसार का यह नारा है कि सारा विश्व ईसा का है। यह सब क्या है ? इसका अर्थ क्या है ? वह कौन सा ईसा है; जिसके नाम से प्राप विश्व पर विजय प्राप्त करना चाहते हैं ? क्या अत्याचार का कोई ईसा है ? क्या अन्याय का कोई ईसा है ? क्या सब अधिकारों के निषेध का कोई ईसा है ? क्या अन्यायपूर्ण और अत्यधिक ऐसे करों (Taxes) का कोई ईसा है ? जो ऐसी सरकार की मदद के लिये लगाये जाते हैं जो कि हमारे ज्ञान, विचार, धर्म और सहमति के प्रतिकूल हैं, विदेशी हैं ? ..... यदि ऐसे ईसा के नाम पर और ऐसे झंडों के आधार पर आप हमें जीतना चाहते हैं तो हम पराजित नहीं होंगे । किन्तु यदि हमारे पास शिक्षा, भ्रातृभाव और विश्व प्रेम के ईसा के नाम से आते हैं तब हम आपका स्वागत करेंगे। ऐसे ईसा को हम जानते हैं और हमें उससे भय नहीं है।" श्री वीरचन्द गांधी भारत में विदेश में जैनधर्म, दर्शन, योग और भारतीय सभ्यता आदि पर सैकड़ों व्याख्यान देने के पश्चात् पाप १८९५ ई० में वापिस भारत आये । बम्बई में उन्होंने 'हेमचन्द्राचार्य अभ्यास वर्ग' की स्थापना की, जिसमें उनके अनेक व्याख्यान हुए। इन व्याख्यानों को अजैन भी सुरुचि पूर्वक सुना करते थे। इसके अतिरिक्त बम्बई की बुद्धिवर्द्धक सभा, प्रार्य समाज, थियोसॉफिकल सोसाइटी प्रादि संस्थानों में भी गांधी जी को जैनधर्म पर भाषण देने केलिये निमंत्रित किया जाता रहा। अमेरिका से गांधीजी को पुनः निमंत्रण आया। अतः १८६६ ई० में आप दूसरी बार वहां गए। वापिस पाते हुए इंगलैंड में भी आपने भाषण दिये और साथ ही वहां रहकर वैरिस्टरी का अध्ययन भी पूर्ण कर लिया। जर्मनी और फ्रांस में भी मापने जैनधर्म पर भाषण दिये थे। १८६८ ई० में जनसमाज के काम केलिये आप पुनः भारत पाये, और कुछ महीनों बाद भारतमंत्री के यहाँ जैनसमाज की ओर से शत्रुजयतीर्थ के विषय में एक अपील करने के लिये आप पुनः इंगलैंड गये । उन्हें अपने कार्य में सफलता मिली। अमेरिका में प्रापके व्याख्यानों का बहुत प्रभाव पड़ा था। आपने कई जगह अभ्यासवर्ग स्थापित किये और जिज्ञासु जन मापसे जैनधर्म का अभ्यास करने के लिये पाने लगे। एक जगह आपको स्वर्णपदक भेंट किया गया। आपने वहाँ 'गांधी फ़िलासोफिकल सोसाइटी' नाम की एक संस्था भी स्थापित की थी। वापिस आने पर प्रापको अभिनन्दन पत्र भी दिया गया था। उस समय माननीय महादेव गोविन्द रानाडे ने सभापति का आसन ग्रहण किया था। __इंगलैंड में आपका स्वास्थ्य बिगड़ गया। अतः आप भारत वापिस आ गये। दुर्भाग्यवश पाने के कुछ सप्ताह बाद ७ अगस्त सन् १६०१ ई० को केवल ३७ वर्ष की युवावस्था में आपका स्वर्गवास हो गया। जैनसमाज एक होनहार, उत्साही, धर्मवीर-कर्मवीर युवक से हमेशा के लिये विहीन हो गया। 1. Jain Philosophy by V. Gandhi P. 264. 2. Abid P. 268. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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