Book Title: Madhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi

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Page 599
________________ मध्य एशिया और पंजाब में जनधम उन्होंने जैन इतिहास और जैनाचार पर प्रकाश डाला । उनका यह भाषण Neely's History of the Parliament of Religions में दिया हुआ है । (पृ० ७३३-३६)। परिषद् के पहले दिन जब स्वागत के भाषणों के बाद भिन्न-भिन्न प्रतिनिधियों ने स्वागत का आभार मानते हुए अपना-अपना परिचय दिया था तब श्री वीरचन्द गांधी ने अति संक्षिप्त भाषण में ये उद्गार प्रकट किये "मैं जैनधर्म का प्रतिनिधि है। यह धर्म बुद्धधर्म से अति प्राचीन है । इसका प्राचारशास्त्र लगभग बुद्धधर्म के समान है, किन्तु आध्यात्मिक तत्त्वों की दृष्टि से यह उससे भिन्न है। इस समय भारत में इसके १५ लाख अनुयायी हैं, जो शान्तिप्रिय और नियमानुसार व्यवहार करनेवाले नागरिक समझे जाते हैं । आपने सुवक्ता सदस्यों के बहुत से भाषण सुने हैं और मैं बाद में विस्तारपूर्वक अपने विचार प्रकट करूंगा। मैं इस समय अपनी समाज और उसके महानगरु मनि श्री आत्माराम जी की ओर से आपके प्रेमपूर्ण स्वागत का आभार मानता हूं। धर्म और दर्शन के विद्वान नेतानों का एक मंच पर एकत्रित होकर धार्मिक समस्याओं पर प्रकाश डालने का यह भव्य दृश्य श्री प्रात्साराम जी के जीवन का आदर्श रहा है । श्री मुनि जी ने मुझे आदेश दिया है कि विशेषतः उनकी ओर से तथा समस्त जनसमाज की ओर से धर्मपरिषद् आयोजित करने के उच्च विचारको कार्यरू,प में परिणत करने में सफल होने पर आपको वधाई अर्पित करूँ" । श्रीयुत वीरचन्द्र ने इस परिषद् में केवल जैनधर्म का ही प्रतिनिधित्व नहीं किया। वस्ततः वे सारे देश के प्रतिनिधि थे। जब कभी कोई व्यक्ति किसी भी अवसर पर भारत के किसी धर्म पर या यहाँ की सभ्यता संस्कृति अथवा रीति-रिवाज पर अनुचित प्राक्रमण करता तो आपकी देशभक्त प्रात्मा तड़प उठती । आप उसका युक्तियुक्त खंडन करते । परिषद् के १४वें दिन ता० २४ सितम्बर १८६३ ई० को एक वक्ता ने हिन्दूधर्म की नैतिकता पर अनुचित कटाक्ष करते हुए कहा था । "ब्राह्यणधर्म के अनुयायियों के हजारों मंदिरों में सैकड़ों स्त्रियां पुजारिन थीं जो चरित्र पतित और विलासिनी समझी जाती थीं। वे वैशियाएं थीं, इसलिये उन्हें पुजारिन बनाया गया वे पुजारिने वैश्यामों का काम भी करती थीं।" अगले दिन जब गांधी जी जैनधर्म पर अपना निबन्ध पढ़ने लगे तो प्रारंभ में उन्होंने इस भद्दे आक्रमण का उत्तर देते हुए कहा "मैं प्रसन्न है कि किसी ने मेरे धर्म पर आक्रमण करने का साहस नहीं किया। ऐसा करना भी नहीं चाहिये । जो आक्रमण किये गये हैं वे सामाजिक कुरीतियों से सम्बन्ध रखते हैं। मैं जिस बात को हररोज़ दुहराता हूं कि ये बुराइयाँ धर्म के कारण नहीं हैं ऐसी बातें सब देशों की समाजों में हुआ करती हैं। अपनी महत्वाक्षाओं को लक्ष्य में रख कर कुछ लोग ये समझते हैं कि वे महात्मा पाल हैं और इस पर वे विश्वास भी कर लेते हैं। ये पाल भारत को छोड़कर अपने विचारों का प्रदर्शन करने और कहा जाएं । तो वे ईसाई धर्म न मानने वालों को अपने धर्म की परिधि में लाने के लिये भारत में जाते हैं और जब उनके स्वप्न भंग हो जाते है तब वे जीवन भर हिन्दुओं की निन्दा करने के लिये वापिस लौट पाते हैं। किसी भी धर्म की निन्दा करना उस धर्म ___2. Neely's History of the Parliament of Religions P. 61-62. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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