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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
जीवीबाई को संसार से वैराग्य हो गया, वह ढूंढकमत की साध्वी प्रेमादेवी के पास स्थानक में जाकर जैन थोकड़ों श्रादि का अभ्यास करने लगी । जब प्रेमादेवी को यह पता लगा की जीवी का विचार दीक्षा का है तब उसने इसे अपने पास दीक्षा लेने के लिए प्रेरणा करना शुरू कर दिया । जीवीबाई को मूर्तिपूजा पर अनन्य श्रद्धा थी । वह जानती थी कि ढूंढकपंथ जिनप्रतिमा उत्थापक है, इसलिये वह इस मत की दीक्षा लेने को राजी न हुई । परन्तु निरन्तर जैन धर्म का अभ्यास करने के लिये वह स्थानक प्रेमादेवी के वहाँ जाती रही । एकदा प्रेमादेबी ने जीवी बाई को जिनमंदिर तथा जिनप्रतिमा को न मानने का बलात् नियम दिला दिया । जीवी के आपत्ति करने पर आज प्रेमादेवी ने कहा कि 'जिनप्रतिमा का मानना मिथ्यात्व है इसलिये हमने तुम्हें सम्यक्त्व देकर जैनधर्म में दृढ़ किया है । यह बात जीवीबाई को बहुत अखरी और उसको एक दम ठेस लगी । पर क्या कर सकती थीं। इस दिन से ढंढक साध्वियों की यह कोशिश जारी रही कि जीवी इनके पास यथासंभव शीघ्र दीक्षित हो जावे पर इसकी भावना तौ मंदिर आम्नाय में (श्वेतांबर संवेगी ) दीक्षा लेने की थी। पंजाब में संवेगी साध्वियों का एकदम अभाव
था ।
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पंजाब में संवेगो साध्वियों का आगमन
लगभग तीन शताब्दियों से पंजाब की धरती पर श्वेतांबर मन्दिर आम्नाय के साधुसाध्वियों का आवागमन न होने से इस धर्म के अनुयायियों का प्रायः प्रभाव हो चुका था । वि० सं० १६०० से सद्धर्मसंरक्षक मुनि श्री बुद्धिविजय जी तथा उन्हीं के प्रौढ़ चारित्र चूड़ामणि प्रकांड विद्वान न्यायांभोविधि तपागच्छीय जैनाचार्य श्री विजयानन्द सूरि (प्रात्माराम ) जी के सद्प्रयास से पंजाब की पवित्र धरती पर सर्वत्र श्वेतांबर धर्म का भी बोलबाला था । वि० सं० १६५९ में गुजरात प्रांत से बीकानेर होते हुए दो संवेगी साध्वियां एक वैरागन महिला के साथ प्राचार्य श्री विजयानन्द सूरि आदि मुनिराजों के दर्शनार्थ पंजाब के जीरा नगर में पधारीं । उस समय प्राचार्य श्री जीरा नगर में विद्यमान थे ।
साध्वी श्री चन्दनश्री व छगनश्री ने पंजाब में सर्वत्र पधारकर साहसपूर्ण कदम उठाया । और इन्होंने यह चतुर्मास भी प्राचार्य श्री की निश्रा में जीरा में ही किया । चौमासा के बाद आचार्य श्री ने वैरागन बाई को दीक्षा देकर चन्दनश्री की शिष्या बनाया और उसका नाम उद्योतश्री रखा । तत्पश्चात् तीनों साध्विया पंजाब में विचरण करने लगीं ।
बाल ब्रह्मचारिणी जीवीबाई की दीक्षा-दीक्षा के बाद नाम साध्वी देवश्री जी ।
संवेगी साध्वियों के पंजाब में पधारने के समाचार जब जीवीबाई ने सुने तो उसके हर्ष का पारावार न रहा । वह उनके दर्शन करने गई और प्रपनी भावना दीक्षा लेने की बतलाई । जीवी की भावना आचार्य श्री विजयानन्द सूरि से दीक्षा लेने को थी परन्तु ससुराल वालों ने दीक्षा लेने की प्राज्ञा नहीं दी । इसलिये दीक्षा लेने में विलम्ब होता गया । वि० सं १९५३ जेठ सुदिप मंगलवार को आचार्य श्री का गुजरांवाला में स्वर्गवास हो गया । जीवीबाई की दीक्षा लेने की भावना भी उत्तरोतर वृद्धि पाती गई । अन्त में ससुराल वालों को दीक्षा की श्राज्ञा देनी पड़ी । वि० सं० १६५४ मिति माघ सुदि ५ ( बसंतपंचमी) के दिन जंडियाला गुरु में मुनि वल्लभविजय ( प्राचार्य विजयवल्लभ सूरि ) जी ने जीवीबाई को दीक्षा देकर चन्दनश्री की शिष्या बनाया। नाम
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