Book Title: Madhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi

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Page 593
________________ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म श्रीजी की शिष्या बनी। दीक्षा लेने के पश्चात अपनी गुरुणीजी आदि साध्वी समुदाय के साथ गुजरात, महाराष्ट्र, सौराष्ट्र प्रादि देशों में विचरण करते हुए अहमदाबाद में विद्याभ्यास के लिये सबके साथ आईपौर बड़ी लगन के साथ अध्ययन कर रही हैं। चार प्रकरण, तीन भाष्य, छह कर्मग्रंथ, क्षेत्र समास, वृहत् संग्रहणी, तत्त्वार्थसूत्र, पंचसंग्रह, कम्मपयडी आदि धार्मिक ग्रंथों का तथा न्याय में तर्कसंग्रह, सम्मति प्रकरण, स्याद्वादमंजरी, संस्कृत में व्याकरण का अभ्यास कर चुकी हैं और आगे भी सतत अभ्यास चालू है । ५-साध्वी श्री प्रियरत्ना श्रीजी नूतनबाला (प्रियधर्माश्री) की छोटी सगी बहन सरोजबाला का जन्म वि० सं० २०२३ में जंडियाला गुरु में हुमा । इसने १३ वर्ष की आयु में सेरीसा तीर्थ (गुजरात) में वि० सं० २०३५ मिति माघ सुदि ५ के दिन दीक्षा ग्रहण की । नाम प्रिय रत्ना श्री जी रखा गया। साध्वी जसवंत श्री जी की शिष्या बनी। ६-साध्वी श्री हर्षप्रभा श्रीजी फरीदकोट (पंजाब) में लाला नरपतराय जी बीसा प्रोसवाल (पट्टीवालों) की भार्या श्रीमती चनन देवी की कुक्षी से पुत्री कमलेशकांता का जन्म दिनांक १६ दिसम्बर सन् ईस्वी १६४७ में हुमा । पिताजी के देहांत के बाद इसकी माता तथा दोनों भाई मालेरकोटला (पंजाब) में चले पाये। यहां स्कूल में मैट्रिक तक विद्याभ्यास किया। स्थानकमार्गी साधु-साध्वियों के व्याख्यान आदि सुनने का अवसर प्राप्त होता रहा । माताजी के धार्मिक संस्कारों की पूरी छाप पड़ी। घर पर धार्मिक पुस्तकों को पढ़ने की रुचि बढ़ती गई और हिन्दी भाषा में जैनधर्मकी अनेक पुस्तकें पढ़ डाली। गुरु वल्लभ का जीवन चारित्र 'प्रादर्श जीवन' नामक पुस्तक के पढ़ने से विचारों में परिवर्तन पाया । संसार की असारता का भान हुमा, वैराग्य भावना जाग्रत हुई और दीक्षा लेने की भावना जोर पकड़ती गई । पूज्या साध्वीश्री जसवंतश्री तथा साध्वीश्री प्रियदर्शनाश्री से दीक्षा लेने की भावना से पत्र व्यवहार चालू किया। माताजी और भाइयों से दीक्षा लेने की प्राज्ञा पाने केलिये प्रयास चालू कर दिया । दो-तीन वर्ष तक प्राज्ञा न मिल पाई । भाई दीक्षा दिलाना कदापि नहीं चाहते थे। तदनन्तर साध्वी श्री जसवन्तश्री जी की निश्रा में माताजी की माज्ञा से तथा भाइयों को बड़ी कठिनता से मनाकर दिल्ली आई। दिल्ली से उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल आदि होते हुए पैदल कलकत्ता तक साध्वी पुष्पाश्रीजी, जसवंतश्रीजी, प्रियदर्शनाश्री प्रादि के साथ विहार में रही और रास्ते में सम्मेतशिखर, पावापुरी आदि तीर्थों की यात्रा की । पश्चात् दीक्षा लेने की प्राज्ञा पाने के लिए कलकत्ता से ट्रेन द्वारा अपने घर लुधियाना में माताजी और भाइयों के पास प्राई (अाजकल ये लोग लुधियाना में रहते हैं)। पुष्पाश्री आदि साध्वियों ने प्रागरा में चतुर्मास किया, दीक्षा की प्राज्ञा प्राप्त कर आगरा में गुरुणीजी से आ मिली। पश्चात् साध्वियां विहार करके ग्वालियर पधारीं । वहाँ पर दिनांक ५ दिसम्बर सन् ईस्वी १९७० में २३ वर्ष की आयु में बड़ी धूम-धाम से दीक्षा हुई। दीक्षा लेने के पश्चात कमलेशकाता को हर्षप्रियाश्री नाम रखा गया। साध्वी श्री प्रियदर्शनाश्री जी की प्रथम शिष्या बनी। वहां से आज तक अपनी गुरुणी जी के साथ में विचरण करते हुए उनकी निश्रा में संयम यात्रा का निरातिचार पालन करते हुए ज्ञानार्जन करने में दत्त चित्त हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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