Book Title: Madhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi

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Page 591
________________ ५४२ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म बार-बार दीक्षा की प्राज्ञा मांगने पर पिता जी ने कहा कि तुम्हारे भाई का विवाह कर लेने दो, बाद में तुम्हें दीक्षा लेने की आज्ञा दे देंगे। श्री दूगड़ जी पर भी इस बात का जोर डालते रहे कि- पद्मा को समझा-बुझाकर उसके दीक्षा लेने के इरादे को बदल दो। पर दूगड़ जी ने कह दिया कि पद्मा कोई बच्ची तो नहीं है जो किसी के बहकाने में पाकर दीक्षा ले रही है। वह प्रब सब तरह से समझदार है, मेरे रोकने से वह रुकने वाली नहीं है। बराबर तीन वर्षों तक मातापिता ने खूब कसौटी पर कसा । माखिरकार माता-पिता को पद्मा को दीक्षा लेने की आज्ञा देनी ही पड़ी अन्त में ता० २४-११-१९६० ई० के दिन अम्बाला शहर में पूज्य आचार्य श्री विजयसमुद्र सूरि के करकमलों से पद्मा ने बड़ी धूम-धाम के साथ भागवती दीक्षा ग्रहण की। इसको दीक्षा के बाद साध्वी श्री जसवंतश्री की शिष्या बनाया गया और नाम श्री प्रियदर्शनाश्री रखा। चार-पांच वर्ष पंजाब में विचरणे से अम्बाला, लुधियाना, जालंधर, जम्मू, अमृतसर आदि नगरों तथा गांवों में धर्म की प्रभावना करते हुए और सतत जैनदर्शन के अभ्यास में अभिवृद्धि करते हुए अपनी गुरुणी के साथ उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल के प्रदेशों को धर्मामृत से सिंचन करते और सम्मेतशिखर, पावापुरी, चम्पापुरी, राजगृही, गुणायाजी, क्षत्रीयकुड इत्यादि इस क्षेत्र में आनेवाले तीर्थंकरों की कल्याणक भूमियों तथा अन्य तीर्थों की यात्रा करते हुए इंदौर मध्यप्रदेश में पधारे। बीच में दिल्ली के चौमासे में आप ने श्री हीरालाल जी दूगड़ से कर्मग्रंथों का अभ्यास किया और एक पी० एच० डी० विद्वान से न्यायशास्त्र का अभ्यास किया । पाप ने अपनी गुरुणी के साथ इन्दौर में चौमासा किया । उस समय यहां गणि जनकविजय जी, दिगम्बर मुनि विद्यानन्द जी, स्थानकमार्गी साधु लाभचन्द जी अपने मुनि परिवार सहित तथा स्थानकमार्गी पाएं भी चतुर्मास के लिये विद्यमान थे । उस समय चारों जनसंप्रदायों के साधुसाध्वियों एक ही व्याख्यान मंडप में प्रवचन करते थे, उसमें आपके प्रवचनों का जनता पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ा। इसका वर्णन साध्वी श्री जसवंतश्री जी के परिचय में कर पाये हैं। इस प्रकार प्राचार्य श्रीविजयवल्लभ सूरि जी की भावनाओं को मूर्तरूप देने के लिये जैनों के चारों संप्रदायों में संगठन तथा एकता के भाव भरे। तत्पश्चात् इंदौर से विहार कर पाप लोग बड़ौदा (गुजरात) पधारे और जिनशासन रत्न, शांतमूति प्राचार्य श्री विजयसमुद्र सूरि जी की निश्रा में चतुर्मास किया। यहाँ पर प्राचार्य श्री की निश्रा में साध्वी सम्मेलन हुप्रा जिसमें साध्वियों को अभ्यास में अधिक से अधिक प्रगतिमान बनने के लिये प्रेरित किया गया। वहाँ से बम्बई, पालीताना चतुर्मास तथा सिद्धि गिरि की निनानवे यात्राएं करके आचार्य गुरुदेव की भावना पूरी करने के लिये उनकी प्राज्ञा लेकर अपनी गुरुणी मादि के साथ स्थाई रूप से अध्ययन करने के लिये पाँच वर्ष केलिये अहमदाबाद रहने का प्रोग्राम बनाकर अहमराबाद पधार गये और प्राजकल आप छठों साध्वियां बड़ी लगन के साथ विद्याध्ययन में संलग्न हैं। अब तक आपने संस्कृत, प्राकृत, व्याकरण, साहित्य, काव्य प्रादि ग्रंथों का, जैनधर्म और दर्शन, प्रकरण, भाष्यत्रय, कर्मग्रंथ, पंचसंग्रह काम्मपयडी आदि कर्म सिद्धांत का, अनेक जैनागमों का साक्षर विद्वानों द्वारा अध्ययन करने में रत हैं। इसके अतिरिक्त जैने तर ग्रंथों तथा माधुनिक विकसित ज्ञान धारापों का भी प्रापको प्रौढ़ज्ञान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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