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प्रवर्तनी देवश्री जी
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साध्वी देवश्री जी रखा। इस समय जीवीबाई की आयु १६ वर्ष की थी। इस समय जंडियाला गुरु में बाबा मुनि श्री कुशल विजय जी, मुनि श्री हीरविजय जी, मुनि श्री सुमतिविजय जी तथा मुनि श्री वल्लभविजय जी विराजमान थे । साध्वी चंदनश्री, छगनश्री, उद्योतश्री तीन साध्वियों तथा इन साधुओं को शिक्षण देने के लिए पट्टी (पंजाब) निवासी वीसा ओसवाल नाहर गोत्रीय पंडित अमीचन्द जी शास्त्री भी मौजूद थे।
दीक्षा के अवसर पर जीवीबाई के ससुराल के परिवारवाले नहीं आये थे। उन्होंने एक पत्र में यह लिखा था कि जीवीबाई से ममता है कारण दीक्षा लेने से उसे अपने परिवार से अलग होते हुए देखना हमें असह्य है इसलिये हमने दीक्षा की आज्ञा तो दे दी है पर इस शुभ प्रसंग कर हमारी उपस्थिती असंभव है।
दीक्षा का सारा खचं जंडियाला गुरु निवासी लाला झंडामल जी लोढ़ा ने किया प्रौर मातापिता लाला हमीरमल जी दुग्गड़ और उनकी पत्नी बने । दीक्षा लेने से पहले जीवीबाई ने अपना सारा जेवर अपने जेठों-लाला हरदयाल मल व लाला प्रभुमल बंभ को भेज दिया । देवश्री जी इस युग में पंजाब में सर्वप्रथन पंजाबी साध्वी बनीं।
दीक्षा लेने के बाद साध्वी देवश्री जी व्याकरण, संस्कृत, प्राकृत, तथा प्रकरणों प्रादि के अभ्यास करने में तल्लीन रहने लगीं। गुरुणी जी के साथ, पट्टी, मालेरकोटला में चतुर्मास किए। गुजरात की तीन महिलाओं ने पंजाब में दीक्षा लेकर आपकी शिष्याएं बनने का सौभाग्य प्राप्त किया । इनके नाम दानश्री, दयाश्री तथा क्षमाश्री रखे गये।
मालेरकोटला से विहार कर आप अपनी गुरुणी जी चन्दनश्री प्रादि साध्वियों के साथ लुधियाना आई । यहाँ पर उपाश्रय कोई नहीं था । इसलिये लाला शिब्बमल जी शादीराम जी के खाली मकान में साध्वियों ने निवास किया। वहीं पर सब महिलाएं हमारी चरित्रनायका से धर्मोपदेश सुनने केलिये माने लगीं। श्राविकाओं में स्थानीय जैनों के घरों में जा जा कर उपाश्रय केलिए धन इकट्ठा करना शुरु कर दिया, कई महिलानों ने अपने तरफ से एक-एक कमरे के लिये धन दिया। जिससे उपाश्रय के लिये जमीन लाला मिलखीराम जी की धर्मपत्नी ने दान में दी। उस पर उपाश्रय का निर्माण हो गया। पश्चात् आपके उपदेश से इसी उपाश्रय में श्री आत्मानन्द जैन धार्मिक कन्या पाठशाला की स्थापना हुई जिसमें बालिकाएं धर्मशिक्षा पाने लगीं। लुधियाना में दो मास स्थिरता करने के पश्चात् होशियारपुर की ओर विहार करदिया। छोटे-छोटे गांवों और नगरों में विचरण करके चन्दनश्री जी मादि सात साध्वियां धर्म का सर्वत्र उद्योत करने लगीं। अमृतसर के चतुर्मास के बाद चन्दनश्री, छगनश्री, उद्योतश्री इन तीन गुजराती साध्वियों ने बीकानेर जाने के लिए विहार कर दिया। बीकानेर पहुंचने पर चन्दनश्री जी का विक्रम संवत् १९५६ को स्वर्गवास हो गया । साध्वी श्री देवश्री जी अपनी तीन शिष्याओं के साथ पंजाब में ही विचरणे लगीं।
वि०सं० १७६२ में जीरा में श्री देवश्री जी तथा इनके साथ इनकी तीन शिष्याओं, दानश्री, दयाश्री व क्षमाश्री जी को मुनिश्री पंन्यास सुन्दरविजय जी ने बड़ी दोक्षाएं दीं। क्योंकि साध्वी चन्दनश्री जी का अब स्वर्गवास हो चुका था इसलिये देवश्री जी को बड़ी दीक्षा साध्वी कुंकुमश्री के नाम से देकर उनकी शिष्या बनाया गया। कुकुमश्री चन्दनश्री जी की बड़ी
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