Book Title: Madhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi

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Page 578
________________ साध्वी श्री शीलवतीश्री जी ५३६ बसा । इस दारुण दुःख को भी हृदय पर पत्थर रखकर सहन किया और अपनी एकमात्र पुत्री भानुमती के लालनपालन में लग गई। एकदा भानुमती भी सख्त बीमार हो गई। बहुत उपचार करने पर भी स्वस्थ न हो पाई । जीवित रहने की सब आशाएं धूलि-धूसर हो गई। शिवकुवर बहन ने मन ही मन में दृढ़ निश्चय कर लिया कि “यदि मेरी यह पुत्री स्वस्थ हो गई तो हम दोनों माता पुत्री भागवती दीक्षा ग्रहण कर लेंगी' । प्रायु कर्म बलवान होने से भानुमती पूर्ण स्वस्थ हो गई । वि. सं. १९६५ में तीर्थाधिराज श्री शत्रुजयगिरि की छत्रछाया में अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार उन्होंने अपनी पुत्री के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली । यही माता व पुत्री क्रमशः वर्तमान की साध्वी शीलवतीश्री जी व मृगावतीश्री जी हैं । साध्वी श्री शीलवती जी का शास्त्राभ्यास तो प्रल्प ही था, किन्तु रासा, स्तवन, सज्झाय प्रादि प्राथमिक ग्रंथों के अध्ययन से उनके पास दोहों, कथा-वार्तामों प्रादि का अपार भंडार था। इसी कारण से उनके पास बैठनेवालों को समय व्यतीत होने का पता नहीं रहता था। साध्वी श्री शीलवती जी ने आदर्श प्रवर्तनी साध्वी श्री देवश्री जी से उपसंपदा ग्रहण की तथा उनकी शिष्या बनी। और साध्वी श्री मुगावतीअपनी माता शीलवती जी की शिष्या बनीं। वे गुरु वल्लभ की ही भांति निर्भीक होकर कटुसत्य कह डालती थीं। गुरु महाराज के प्रति उनकी असीम श्रद्धा और भक्ति थी और अपनी प्राज्ञा में रहनेवाली साध्वियों के प्रति अपार वात्सल्य था। प्राचार्य श्री विजयवल्लभ सूरीश्वर जी के आदेश से उन्होंने अपनी शिष्याप्रशिष्याओं के साथ सौराष्ट्र, गुजरात, बंगाल, बिहार, उत्तरप्रदेश, पंजाब, राजस्थान, महाराष्ट्र में घूम-घूमकर धर्म प्रभावना की । वे जहां भी जाती थीं बिना किसी भेदभाव के महावीर वाणी सुनाती थीं। वे अपनी पुत्री और शिष्या श्री मृगावती के प्रति भी सदा जागरुक रहीं। यह इसी जागरुकता का परिणाम है कि मृगावतीजी तेजस्वी, स्वतन्त्रचिंतक, प्रभावक तथा विद्वता की प्रत्यक्ष प्रतिभा सम्पन्न हैं। प्राध्यात्मिक दृष्टि सम्पन्न और निरातिचार चारित्र पालन आदि गुणों से परिपूर्ण हैं । संघ के कल्याण के लिये इस प्रकार की अनुपम भेंट देने वाली साध्वी श्री शीलवती जी से श्रीसंघ कभी उऋण नहीं हो सकता। जहां उन्हें अपनी पुत्री के प्रति अपार वात्सल्य था वहां आवश्यकता पड़ने पर वे उसके हित की दृष्टि से कठोर भी हो जाया करती थीं। पंजाब व बम्बई में वे अत्यन्त लोकप्रिय थीं। वे सदा गरीब तथा मध्यमवर्ग और असहाय वर्ग के हितचिंतन में तल्लीन रहती थीं । उनके गुरु के द्वारा स्थापित जब श्री महावीर विद्यालय बम्बई की शाखाओं में जयन्ती मनाई जा रही थी, तभी वि. सं. २०२४ मिति माघ कृष्णा ४ दिनांक १६ फरवरी १९६८ ई. को सायं ६ बजे बम्बई के महावीर स्वामी देरासर (मन्दिर) के उपाश्रय में ७४ वर्ष की आयु व ३० वर्ष की दीक्षा पर्याय पालकर समाधिपूर्वक उनका स्वर्गवास हो गया। उनकी श्मशान यात्रा बड़ी विशाल व भव्य थी। उनकी स्मृति में ६३ हजार रुपए की राशि से स्थापित, श्री प्रात्म-वल्लभ-शील-सौरभ ट्रस्ट से उनकी कीति-पताका स्थाई रूप से फहराती रहेगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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