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साध्वी जसवंत श्री
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का नाम चन्दरानी रखा। चन्दरानी के दो भाई और दो बहने और थे एवं यह उनको चौथे नम्बर की संतान थी । बचपन से ही पिता श्रीका साया सदा के लिये उठ जाने के कारण माता को इस पुत्री से बहुत ममता थी। दोनों माता पुत्री क्षणभर भी जुदाई का विरह बर्दाशत नहीं कर सकती थीं। माता की दीक्षा लेने की भावना होने से वह घर से अकेली चली गई । किन्तु चन्दरानी मां के विरह में रो-रोकर प्रति व्याकुल रहने लगी। तत्पश्चात एकबार माता अपने घर वापिस आई और अपने सगे-सम्बंधियों तथा बच्चों से दीक्षा लेने की भावना बतलाई और उनसे प्राज्ञा चाही । सबने कहा कि चन्दरानी आपके बिना घर पर न रह सकेगी चन्दरानी भी माँ के गले में लिपटकर बिलबिलाकर रोने लगी और माता के साथ जाने के लिये हठ पकड़ गई । अन्ततः माता अपनी इस बेटी को साथ में लेजाने के लिये रजामन्द हो गई। परिवार की तरफ से दोनों को दीक्षा लेने की आज्ञा मिल गई। उस समय प्राचार्य श्री विजयवल्लभ सूरीश्वरजी लुधियाना (पंजाब) में विराजते थे। आपकी प्रेरणा और प्राज्ञा से माँ-बेटी पालीताना (सौराष्ट्र) में जा पहुंची। वहां जाकर मां-बेटी ने भागवती दीक्षा ग्रहण की। माता साध्वी श्री हितश्री जी (प्रवर्तनी देवश्रीजी की प्रशिष्या) की शिष्या बनी, नाम प्रानन्दश्री रखा गया और पुत्री आनन्दश्री की शिष्या बनी नाम जसवन्तश्री जी रखा गया। इस समय जसवन्तश्री जी की आयु मात्र १० वर्ष की थी। वि० सं० २००१ मिति मार्गशीर्ष सुदी ६ के दिन दीक्षा सम्पन्न हुई ।
दीक्षा लेने से पहले पालीताना के ठाकुर साहब ने चन्दरानी को अपने पास बुला भेजा और उसे इतनी छोटी आयु में दीक्षा लेने के लिये रोका, संसारी सुखों का प्रलोभन भी दिया। किन्तु बालिका अपने निश्चय पर दृढ़ रही और निडरता पूर्वक कहा कि जो मेरी मां करेगी मैं भी उसी का अनुकरण करूंगी और अन्त में वैसा ही किया। .
साध्वी प्रानन्दश्री ने भी अपनी पुत्री शिष्या जसवन्तश्री के विद्याध्ययन की पूरी-पूरी व्यवस्था रखी । इस छोटी उम्र में ही जसवन्तश्री को भी पठन-पाठन की बड़ी रुचि थी। परिणाम स्वरूप पठन-पाठन के साथ-साथ सेवाभावना, तपाराधना, निरातिचार संयमाराधना तथा धर्माराधना केलिये क्रियानुष्ठान में भी सोत्साह रुचि रखते हुए अपना संयमार्गयापन करने लगीं।
विद्याभ्यास--संस्कृत, प्राकृत व्याकरण तथा भाषा ज्ञान के साथ-साथ गुजराती, हिन्दी अादि भाषाओं का भी प्रौढ़ ज्ञान किया । दशवकालिक, तत्त्वार्थसुत्र चारों प्रकरण, तीनभाष्य, कर्मग्रंथ, वैराग्यशतक प्रादि जैन धार्मिक ग्रंथों का विधिवत अभ्यास किया । तत्पश्चात् गुजरात, सौराष्ट्र, राजस्थान, उत्तरप्रदेश आदि में विचरण करते हुए रास्ते में स् ब जैन तीर्थों की यात्राएं करते हुए साध्वी पुष्पाश्री, पुण्यश्री आदि के साथ पंजाब में पधारे। यहां प्राकर संस्कृत काव्य तथा साहित्य का उत्तम अभ्यास किया। उत्तराध्ययन, स्थानांग आदि पागम ग्रंथों का अभ्यास किया । कुछ वर्ष पंजाब में धर्म प्रभावना करते हुए विहार कर उत्तरप्रदेश, बंगाल, बिहार आदि तीर्थों की यात्रायें की। वहां से लौट कर अपनी शिष्याओं के साथ आपने इन्दौर में चौमासा किया। उस समय यहाँ सर्वधर्म समन्वयी श्वेतांबर मुनि गणि जनकविजय जी, दिगम्बर मुनि विद्यानन्द जी, स्थानकमार्गी तपस्वी मुनि लाभचन्द जी तथा स्थानकमार्गी साध्वी प्रीतिसधा जी आदि अनेक ठाणों का भी चतुर्मास था। इस चतुर्मास में सब जैन सम्प्रदायों के मुनियों और साध्वियों के प्रवचन एक
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