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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
शिष्या थी। बाकी की आपकी शिष्यानों को बड़ी दीक्षा देकर आपकी (देवश्री जी की) शिष्यायें बनाया गया। तत्पश्चात् आपने बीकानेर की तरफ प्रस्थान किया ।
लुधियाना के बीसा ओसवाल लाला रुलयाराम की पुत्री शांतिदेवी के विवाह की मिति निश्चित हो गई, पर शांतिदेवी संसार की असारता के कारण विवाह नहीं करना चाहती थी। वि० सं० १९६२ में वह हमारी चारित्रनायिका के पास प्राईं और दीक्षा लेने की भावना प्रकट की उत्कट वैराग्य के कारण विवश होकर माता-पिता को अपनी पुत्री को दीक्षा लेने की आज्ञा देनी पड़ी। वि० सं० १९६३ में बीकानेर में कु० शांतिदेवी की भागवती दीक्षा पंन्यास सुन्दरविजय जी ने देकर साध्वी देवश्री की शिष्या बनाया और नाम हेमश्री जी रखा।
हमारी चारित्रनायिका ने वि० सं० १९६३ का चौमासा बीकानेर में करके आगे को कूच किया। वि० सं० १९६४ में सिद्धाचल जी की यात्रा करके चौमासा पालीताना में किया । इस प्रकार राजस्थान, गुजरात, सौराष्ट्र प्रादि क्षेत्रों में विचरते हुए आपकी अनेक शिष्याएं-प्रशिष्याएं बनीं । सर्वत्र धर्म का उद्योंत करते हुए इन क्षेत्रों में प्रानेवाले सब तीर्थों की यात्राएं करके प्रात्मकल्याण किया। श्री सिद्धगिरि की निणाणूं यात्राएं भी की। गिरनार, आबू, तारंगा आदि की स्पर्शना भी की। कई छरी पालित श्रावक-श्राविकानों के संघों के साथ भी तीर्थयात्राएं की।
पुनः पंजाब में प्रागमन | वि० सं० १६७६ में पाप अपनी शिष्याओं-प्रशिष्यानों के साथ पुनः पंजाब पधारे और वि० सं० १९७७ का चतुर्मास प्रापने लुधियाना में किया। इस समय स्वामी सुमतिविजय जी का चौमासा भी यहीं था । चार वर्ष पंजाब में सर्वत्र विहार कर वि० सं १९८१ में लाहौर पधारे। इसी वर्ष लाहौर में पुरातन जिनमंदिर का जीर्णोद्धार होकर प्राचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि जी के द्वारा प्रतिष्ठा हुई और चतुर्विघसंघ ने मुनि श्री वल्लभविजय जी को प्राचार्य पदवी प्रदान की। आचार्य श्री तथा आपके चतुर्मास लाहौर में ही हुए।
वि. सं० १९८२ में गुजराँवाला में प्राचार्य श्री ने श्री प्रात्मानन्द जैनगुरुकुल पंजाब की स्थापना की । हमारी चरित्रनायिका भी गुजरांवाला में साध्वीमंडल सहित पधार गये थे। यह चौमासा भी गुजरांवाला में ही हुआ । पश्चात् नारोवाल, जीरा आदि में विचरण करते हुए गुरुकुल के प्रचार तथा प्रार्थिक सहयोग केलिये श्रीसंघों को प्रेरणा करने में संलग्न रहे।
स्वाध्याय, शास्त्राभ्यास प्रादि सदा चालू रखते थे । स्वस्थ-अस्वस्थावस्था में, वृद्धावस्था में भी आप सदा ज्ञानार्जन में तल्लीन रहते थे । जहाँ प्राचार्य श्री का चतुर्मास होता यदि उस वर्ष प्राप का चतुर्पास भी उसी नगर में होता तो आप व्याख्यान में उपस्थित होकर जिस शास्त्रादि का व्याख्यान प्राचार्य श्री फरमाते उसी शास्त्र को खोलकर सामने रख लेते और उसकी धारणा करते थे।
प्रवर्तनी पद से विभूषित प्रापको प्राचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि जी ने प्रवर्तनी पद से विभूषित किया और प्राप ने इस पद को इतनी कुशलतापूर्वक निभाया कि आप इस युग की आदर्श प्रवर्तनी कहलाये ।
वि० सं० १६६७ को आपका तथा प्राचार्य श्री का चतुर्मास गुजरांवाला में था। उस समय प्राचार्य श्री ने सारे श्रीसंघ के समक्ष अपने मुखाविंद से फरमाया कि प्रवर्तनी साध्वी जी देवश्री जी
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