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साध्वीसमुदाय-प्रवर्तनी साध्वी श्री देवश्री जी
५२१ इस प्रकार अनेक मुमुक्षुत्रों ने पंजाब में श्वेतांबर संवेगी मुनियों की दीक्षाएं लेकर इस क्षेत्र में जैनधर्म का प्रचार तथा प्रसार किया।
ढूंढक (स्थानकमार्गो) साधु समुदाय वि० सं० १९३५ से लेकर आजतक पंजाब क्षेत्र में इस मत के साधुनों का सर्वत्र प्रसार और प्रचार है । प्रायः सब नगरों में सदा-सर्वदा इन लोगों का निवास रहता है।
दिगम्बर सम्प्रदाय इस मत के साधुनों का कई शताब्दियों तक विच्छेद रहा । लगभग एक शताब्दी में इस मत में इने-गिने साधु दीक्षित हुए हैं। और इनका विहार क्षेत्र अधिकतर दक्षिण भारत से दिल्ली तक ही आजकल भी रहा है । मात्र एक दो मुनि हरियाणा में अंबाला तक गये हैं और वे भी एक दो चतुर्मास करके पंजाब से वापिस लौट आये हैं ।
साध्वी समुदाय
प्रवर्तनी साध्वी देवश्री जी अंबाला शहर में बीसा प्रोसवाल भाबु गोत्रीय लाला देवीचन्द्र जी के सुपुत्र लाला नानकचन्द की धर्मपत्नी श्रीमती श्यामादेवी की कुक्षी से वि० सं० १९३५ वैसाख सुदि १० को जीवी नामक पुत्री का जन्म हुमा । ये तीन बहनें थीं, जीवी मंझली थी।
जीवी की आठ वर्ष की आयु में इसकी माता का देहांत हो गया। बाद में छोटी बहन भी मर गई । विवश होकर पिता ने दूसरा विवाह कर लिया। कुछ समय बाद जीवी की बड़ी बहन प्रक्की का भी देहावसान हो गया ।
जीवी का विवाह वि० सं० १९४८ जेठ प्रविष्ठे २६ को १३ वर्ष की आयु में जोधा गांव (लुधियाना) निवासी लाला शोभामल के सुपुत्र श्री चम्बामल के साथ हो गया। विवाहोपरांत जव जीवीबाई ससुराल पहुंची कुछ ही घंटों बाद इसके पति चम्बलाल हैजा के रोग से आक्रांत हो गये। बहुत उपचार करने पर भी वे निरोग न हो पाये और अन्त में उनका देहान्त हो गया। जीवीबाई को सोहागरात मनाना भी नसीब न हुई । यह सदा के लिये पतिसुख से वंचित होकर बालविधवा हो गई।
जीवीबाई को उसके पिता अंबाला ले आये । उसे जन्म से ही माता-पिता से धार्मिक संस्कार मिले थे । वह अधिकतर मायके में ही रहने लगी। कभी-कभी ससुराल में भी चली जाया करती थी। उस समय पंजाब में सर्वत्र ढूढकमत का ही बोलबाला था। श्वेताम्बर संवेगी साध्वियों को पंजाब में तीन सौ वर्षों से विचरने का अवसर प्राप्त न हुआ था। यद्यपि अब से पचास वर्ष पहले पंजाब में श्वेतांबरधर्म का इस युग में सद्धर्मसंरक्षक मुनि श्री बूटेराय (बुद्धिविजय) जी ने सर्वत्र प्रचार करके सच्चे धर्मामृत का पान कराकर इस धर्म के अनुयायियों में वृद्धि की थी, उनके बाद उन्हीं के शिष्य तपागच्छीय प्राचार्य श्री विजयानन्द सूरि (आत्माराम) जी भी इसी धश को पावन कर रहे थे परन्तु अभी तक श्वेतांबर संवेगी साध्वियों ने इस धरती पर पदार्पण नहीं किया था । जीवीबाई के माता-पिता का परिवार जैन श्वेतांबर मूर्तिपूजक धर्म का अनुयायी था। जीवीबाई को भी भूर्तिपूजा पर दृढ़ श्रद्धा थी, वह दर्शन किये बिना अन्न जल ग्रहण नहीं करती थी।
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