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अध्याय ७ प्रसिद्ध साधु-साध्वियाँ और गहस्थ
प्राचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि प्राचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि बीसवीं सदी के सुप्रसिद्ध धर्मगुरु, शांतनेता, तत्त्ववेत्ता व युगप्रधान व्यक्तित्व को धारण करनेवाले जैन संत थे । आदर्श गुरु, महान सुधारक, शिक्षाप्रेमी, राष्ट्रीयनेता तथा प्रकांड विद्वान के रूप में प्राप युग-युग तक जाने जायेंगे। आप तपागच्छीय प्राचार्य श्री विजयानन्दसूरि (प्रात्मराम) जी के पट्टधर थे तथा उनके प्रपौत्र शिष्य थे। यानी आत्माराम जी के शिष्य लक्ष्मीविजय जी के शिष्य हर्षविजय जी के प्राप शिष्य थे।
पाप ने अपने जीवन काल में तथा विशेष रूप से साधू संस्था में जो कार्य किये है, उन से महान ऐतिहासिक घटनाएं बनी हैं। आप ने सारे भारत में विशेषकर पंजाब में जैनधर्म को बहुत ही लोकप्रिय बनाया है । पंजाब का लोक मानस बहुत चुस्त और दृढ़ है । न माने तो न माने, मानने लगे तब छोड़े नहीं इस प्रकार की मनःस्थिति वाले लोगों को आप ने धर्मान कल बनाया और धर्म के मूल को गहरा विकसित किया । एक प्रखर धुरंधर समाज सुधारक के रूप में आप ने अनुपम कार्य कर दिखलाये हैं।
जन्म और दीक्षाआप का जन्म वि० सं० १९२७ कार्तिक सुदि २ को बड़ोदा (गुजरात) में हुआ। पिता का नाम दीपचन्द और माता का नाम इच्छाबाई था। माता-पिता ने पाप का नाम छगनलाल रखा।
१७ वर्ष की आयु में वि० सं० १९४४ में राधनपुर (गुजरात) में आप ने प्राचार्य श्री विजयानन्द सूरि जी से तपागच्छ श्वेतांबर जैन परम्परा में दीक्षा ग्रहण की। आप को मुनि हर्षविजय जी का शिष्य बनाया और नाम वल्लभविजय रखा । वि० सं० १९८१ में आपको सारे पंजाब संघ ने लाहौर में प्राचार्य पदवी से विभूषित किया तब आप का नाम आचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि जी रखा गया और पाप को आचार्य विजयानन्द सूरि का पट्टधर घोषित किया गया।
पाप की जन्मकुंडली नहीं थी । नष्ट जन्मकुंडली को आप के परमभक्त गुजरांवाला (पंजाब) निवासी लाला दीनानाथ जी चौधरी सुपुत्र बापू मथुरादास जी दूगड़ ने आप के शिष्य पंन्यास विद्याविजय (प्राचार्य विजयविद्या सूरि) जी की प्रेरणा से ईस्वी सन् १९३० (वि० सं० १९८७) में निर्माण किया । उस जन्मकुंडली को पंन्यास विद्याविजय जी ने उड़मड़ (होशियारपुर) में जाकर वहां के ज्योतिषि के पास सुरक्षित मृगुसंहिता नामक महाग्रंथ हस्तलिखित से मिलान किया। हर्ष है यह जन्मकुंडली भृगुसंहिता में विद्यमान आप की जन्मकुंडली से बराबर मेल खा
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