________________
श्री विजयानन्द सरि
४५७
५. जब धूर्त और पाखंडी ज्ञानी ज़बरदस्त होते हैं तथा जब प्रतिपक्षी असमर्थ एवं कम समझदार होते हैं तब ऐसी परिस्थिति में धूर्तों और पाखंडियों की बन पाती है। सत्यमार्गीपरमेश्वर का भक्त ही स्वार्थ त्याग कर परमार्थ करता है । धूर्तों और पाखंडियों के जाल में न फंसना ही बुद्धिमत्ता है । पाखंडी लोगों को उचित है कि अपना स्वार्थ छोड़ देवें और लोगों को भ्रमजाल में न फंसावें । स विद्या का पठन-पाठन करें और लोगों को अच्छी बुद्धि देवें । हिंसक और अनिष्टकारी साहित्य के पठन-पाठन का त्याग करें। स्वपुरुषार्थ से कमा कर खावें। छलकपट न करें । सब प्राणियों पर कृपा दृष्टि रखें । दुःखियों की सहायता करें। काली, कंकाली, भैरव आदि हिंसक देवों की मानता छोड़ दें। सत्य, शील, संतोष से अपना और दूसरों का कल्याण करें। तभी देश और विश्व में सुख और शांति का प्रसार संभव है।
६. अपनी नामवरी के लिये ब्याह-शादियों में, मंदिर आदि बनवाने में, जिह्वा के स्वाद के लिये खाने-पीने में लाखों रुपये लगा देते हैं। किन्तु जीर्ण-शास्त्रभंडारों की सारसंभाल तथा उन का उद्धार करने की बात तो न जाने स्वप्न में भी नहीं करते होंगे ?
जिन मंदिर बनवाने, साधर्मीवात्सल्य करने का फल स्वर्ग और मोक्ष कहा है किन्तु श्री जिनेश्वर प्रभु का धर्म एकान्तवाद में नहीं है । उन्हों ने कहा है कि जो क्षेत्र बिगड़ता हो उसे पहले संभालना चाहिये । इस काल में जैनशास्त्र भंडारों की व्यवस्था ठीक नहीं है, वे जीर्ण-शीर्ण होते जा रहे हैं, बिगड़ते जा रहे हैं। (जो जिस के हाथ पड़ा उसे उठा ले जा रहे हैं), इस लिये पहले उन का उद्धार करना चाहिये। जिस जाति धर्म का साहित्य नष्ट हो जाता है उस में अज्ञानता का साम्राज्य छा जाता है और संस्कृतिका लोप हो जाने से उस जाति और धर्म का नाम शेष रह जाता है। जिनमंदिर तो फिर भी बन जायेंगे। प्रागम शास्त्र-ग्रंथ नष्ट हो गये तो उन्हें कौन बनावेगा ? कहाँ से प्रावेंगे ? जो लोग अपने उत्तम ग्रंथों की सारसंभाल नहीं रखते, उद्धार नहीं करते, पठन-पाठन नहीं करते, प्रचार-प्रसार नहीं करते । (उन का प्रकाशन नहीं करते), वे जिन शासन के वफादार तथा संरक्षक कदापि नहीं हो सकते । अतः इस ओर अधिक से अधिक लक्ष्य देना चाहिये।
आचार्य श्री ने जैनों के चारों सम्प्रदायों में ई० सं० १८६० तदनुसार वि० सं० १९४७ में जैनसमाज को जैनकालेज आदि संस्थाएं खोलने का उपदेश दिया था। इस विषय का बम्बई के सेठों के नाम स्वलिखित पत्र विजयानन्द शताब्दी ग्रंथ में प्रकाशित हैं।
शिष्य१. श्री लक्ष्मी विजय जी, २. श्री सुमतिविजय जी, ३. श्री रंगविजय जी, ४. श्री चरित्रविजय जी, ५. श्री कुशल विजयजी, ६. श्री उद्योतविजयजी, ७. श्री प्रमोदविजयजी, ८. श्री रतन विजयजी, ६. श्री संतोषविजयजी, १०. (उपाध्याय) श्री वीरविजय जी, ११. श्री विनयविजयजी, (प्रवर्तक) १२. श्री कान्ति विजयजी, १३. श्री शांतिविजयजी, १४. श्री अमरविजयजी, १५. श्री रामविजयजी आदि ।
हस्तदीक्षित अन्य साधु१. श्री कमलविजय (प्राचार्य विजयकमल सूरिजी)२. श्री हर्षविजय जी, ३. श्री कल्याण विजय जी, ४. श्री मोतीविजय जी, ५. श्री हंसविजयजी, ६. श्री मोहन विजयजी, ७. श्रीमानकविजयजी,
नादा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org