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वीर परम्परा का प्रखण्ड प्रतिनिधित्व
आदरणीय होगा और ग्रंथकार के योग्य, उच्च शोभा से संगत हो वैसा ही उसको कार्यक्रम में स्थान मिलेगा । यद्यपि श्राप से हम शिकागों में बहुत दूर बैठे हैं तो भी जब-जब धर्म सम्बन्धी चर्चाएं होती हैं तब-तब हम बारंबार आत्माराम जी महाराज का नाम सुनते रहते हैं ।
(विलयम पाईप प्राइवेट सेक्रेटरी-शिकागो ) ३. प्रापके चित्र के नीचे अंग्रेजी में लिखा है - जिसका अर्थ इस प्रकार है"मुनि श्री आत्माराम जी जैसा जैनसंघ के हित में तल्लीन रहने वाला अन्य कोई पुरुष नहीं है । अपने साध्य के लिए दीक्षा के दिन से लेकर अन्तिम श्वासों तक रात-दिन व्यस्त रहने वाला यह एक प्रतिज्ञाबद्ध महानुभाव है । जैनसंघ का तो वह पूजनीक पुरुष है ही, परन्तु जैनधर्म और जैन साहित्य के विषय में पौर्वात्य विद्वान प्रापको प्रमाणभूत मानते हैं ।
(विलियम पाईप प्राईवेट सेक्रेटरी विश्वधर्म परिषद् शिकागो )
विशेष ज्ञातव्य
१. मुनि श्री श्रात्मारामजी महाराज सदा अपने मुनिमंडल के साथ पाद विहार करते थे। किसी भी श्रावक आदि के बिना अथवा किसी विशेष प्राडम्बर श्रादि से रहित विचरते थे । रास्ते में गोचरी आदि की दुर्लभ प्राप्ति प्रथवा प्रभाव के कारण भी भूख-प्यास आदि के परिषहों को सहन करने में दृढ़ संकल्पी थे ।
२. पंजाब में सर्वत्र स्थानकमार्गी पंथ का प्रसार होने से आप को सर्वत्र प्रहार – पानी तथा निवास स्थान की असुविधाएं होने पर भी प्राप अपनी सुरक्षा तथा सुख-सुविधाओं केलिए अपने साथ किसी भी प्रकार का प्रबन्ध रखना शास्त्रमर्यादाओं का उल्लंघन समझते थे । श्रतः किसी भी श्रीसंघ आदि की बिना सहायता तथा उन्हें बिना समाचार दिए ग्राप विहार करते थे । जिस गाँव - नगर में आप को जाना होता था, वहाँ पहुंचने पर ही लोगों को आप का पधारना ज्ञात होता था । पहले कदापि नहीं ।
३. विहार में आप को कई-कई दिनों तक माहार पानी न मिलने से मुनि-मंडल के साथ भूखेप्यासे रहना पड़ता था । एकदा पसरूर में श्वेतांम्बरों के घर न होने से न तो श्राप मुनि-मंडल को श्राहार- पानी ही मिला न निवासस्थान । जेठ मास की कड़कती धूपवाली दोपहरी में १८ मुनियों के साथ यहाँ से विहार कर चार-पाँच दिनों में श्राप गुजरांवाला में पहुंचे और चार-पाँच दिनों बाद वि० सं० १९५३ जेठ सूदि ८ को आप का स्वर्गवास हो गया ।
४. विरोधियों ने इस नाजुक और शोकमय अवसर से अनुचित लाभ उठाने के लिये सरकारी सत्ताधारियों को तार कर दिये कि श्राप का स्वर्गवास स्वाभाविक नहीं हुआ बल्कि आप को विष देकर समाप्त किया गया है। पूछ-ताछ करने के बाद ही शव का दाह संस्कार करने की प्रज्ञा दी जावे । इन का यह दाव भी निकल गया। पूरे सम्मान के साथ प्राप श्री के मृत शरीर का चन्दन की चिता में दाह संस्कार कर दिया गया । दाह संस्कार स्थान पर कुछ ही वर्षों में समाधिमंदिर का निर्माण कर दिया गया । वह स्थान अब पाकिस्तान में है ।
५. जिस समय समुद्र पार जाना जैन श्रावक के लिए निषिद्ध था । विदेश जानेवालों को संघ बाहर कर दिया जाता था, उस समय श्राप ने वि० सं० १६५० ( ई० सं० १८६३) में जैन श्रावक वीरचन्द राघवजी गांधी बैरिस्टर Bar-at-Law को विश्वधर्म परिषद शिकागो
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