Book Title: Madhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Jain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi

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Page 492
________________ वीर परम्परा का प्रखण्ड प्रतिनिधित्व जैन इतिहास में महाराज श्री का स्थान श्रौर उसका कारण ढाई हजार वर्षों के जैन इतिहास में श्वेतांबर - दिगम्बर दोनों परम्पराम्रों ने अनेक विभूतियाँ ऐसी पैदा की है जो इतिहास के लेखकों और अभ्यासियों का ध्यान अपनी तरफ़ खँचे बिना नहीं रह सकतीं । उन विभूतियों में से अंतिम हज़ार वर्षों में जो विभूतियाँ श्वेतांबर परम्परा ने अर्पण की हैं । उसमें आचार्य श्री विजयानन्द सूरि जी का विशिष्ट स्थान हैं । वाचक यशोविजय जी के बाद दो सौ वर्षों में बहुश्रुत होने का वास्तविक स्थान आपने ही संभाला है एवं अंतिम ढाई सौ वर्षों के जैन इतिहास में श्वेतांबर अथवा दिगम्बर दोनों परम्पराम्रों में एक महान विभूति के रूप में श्राप श्री ही दृष्टि गोचर होते हैं । इस पद को प्राप्त करने के कुछ विशिष्ट कारण ही है । ४५१ श्रद्धा और बुद्धि आप में चाहे कितनी डग श्रद्धा क्यों न होती श्रथवा कितना ही शासन अनुराग क्यों न होता, यदि श्रापका बुद्धि द्वार खुला न होता । यदि जितना भी प्राप्त हो सके उतना समग्र ज्ञान अधिक से अधिक प्राप्त करने के लिए प्रखण्ड अनथक पुरुषार्थ न किया होता तो आप नाम मात्र के ही प्राचार्य रह जाते । श्रापने श्राजीवन अपनी बुद्धि को शास्त्र व्यायाम की कसौटी पर कसकर और जब प्रकाशित पुस्तकें नहींवत् थीं, ऐसे अवसर पर प्रापने जैन-जैनेतर दर्शनों के, अनेक विषयों के संख्याबन्ध अनेक ग्रंथों को पढ़ा। आप जैन, बौद्ध, वैदिक, पौराणिक आदि सब मता-मतांतरों के दिग्गज विद्वान थे । प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी, गुजराती आदि अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे । शिलालेखों, ताम्रपत्रों, प्राचीन लिपियों, भूगोल, भूस्तर, मूर्तिकला विद्यात्रों के प्रकांड पंडित थे । जिस समय जैन समाज में शुद्ध ऐतिहासिक दृष्टि जागी नहीं थी तब आपने ऐतिहासिक शोध-खोज कर के जैन शासन की महत्ता, प्राचीनता सबल युक्तियों से सिद्ध की। प्राचीन लिपियों का अभ्यास कर नेक प्राचीन तथ्यों को प्रकाश में लाये । श्रापका विशाल वचन अद्भुत स्मरण शक्ति और प्रश्नों के उत्तर देने की सचोटता आपके द्वारा रचित ग्रंथों के शब्द शब्द में दिखलाई पड़ते हैं । इसी बुद्धि योग की विशिष्टा के कारण आपको इस काल में विशिष्ट दर्जा प्राप्त हुआ है । क्रांतिकारिता आपके बुद्धि योग के उपरांत एक दूसरा तत्त्व भी था । जिस तत्त्व ने आपको इतना बड़ा महत्त्व दिया । वह यह है कि बहुत वर्षों तक एक सम्प्रदाय में रहते हुए प्राप ने जो गौरव, महत्वपूर्ण सम्मान, पूर्ण प्रतिष्ठा तथा उत्कृष्ट पूज्यावस्था पायी थी । जब यह अनुभव किया कि जिस परम्परा में मैं इस समय हूं, उसे वीर परम्परा में अखण्डता प्राप्त नहीं है । तब बिना किसी हिचकिचाहट के साँप की कांचली के समान उसे उतार फेंकने का साहस किया । यह कार्य आपकी सच्चे तत्त्व परीक्षक तथा क्रांतिकारिणी शक्ति का परिचय देता है । इससे स्पष्ट है कि आपके अंदर कोई ऐसी सत्य शोधक शक्ति होनी चाहिए। जिसने आपकी आत्मा को रूढ़ि के चोले में सन्तुष्ट न रहने दिया । आप तीस वर्षों तक भौर जीवित रहते तो आपको इस क्षत्रियोचित क्रांतिकारिणी प्रकृति ने किस भूमिका तक पहुंचाया होता, इसकी कल्पना कठिन अवश्य है । परन्तु प्रापके चालू जीवन पर से इतना तो अवश्य समझ सकते हैं कि एक बार जो प्रापको सत्य प्रतीत होता था उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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