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लुका- तू ढिया ( स्थानकवासी) मत
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१ - भूना (भाणा)' ऋषि जी, २ – भीदा ऋषि जी, ३- नूना ऋषि जी, ४ – भीमा ऋषि जी ५ - जगमाल ऋषि जी, ६ - सरवा (सरवर ) ऋषि जी, ७ - रायमल्ल ऋषि जी, - सारंग ऋषि जी, ε-- सिंघराज ऋषि जी, १० - जसोधर ऋषि जी, ११ - मनोहर ऋषि जी, ११ - सुन्दर ऋषि जी, १३ – सदानन्द ऋषि जी, १४ - जसवन्त ऋषि जी, १५ - वर्द्धमान ऋषि जी, १६ – लखमी ऋषि जी, १७ - रिखबा (रीखा ) ऋषि जी, १५ - - सन्तु ऋषि जी १६ - हरदयाल ऋषि जी इत्यादि । इन में से बीच-बीच में से कई शाखायें - प्रशाखायें निकलती रहीं और उन शाखाम्रों वाले अलग-अलग नगरों में अपनी-अपनी अलग-अलग गद्दियां कायम करते चले गये । फगवाड़ा नगर के यति मेघाऋषि (मेघराज ) कवि अपने आपको लाहौरी उत्तरार्ध कागच्छ के संघराज ऋषि की पट्टपरम्परा का मानते हैं । उन्होंने पंजाबी और हिन्दी में श्रनेक ग्रंथों की रचनाएं की हैं। फगवाड़ा नगर (पंजाब) में इनके उपाश्रय में इनके गुरुधों के द्वारा स्थापित की हुई २३ वें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ प्रभु कीं एक भव्य प्रतिमा थी ।
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जैन श्वेताम्बर मुनिराजों का पंजाब में श्रावागमन लगभग दो शताब्दियों तक न होने से ढूंढकमत के प्रचार और प्रसार के प्रभाव से सारे पंजाब में प्रायः सब लोग इस मत के अनुयायी बन गये और जैन श्वेताम्बर धर्म का प्रायः लोप हो गया था । पश्चात् वि० सं० १८६७ से सत्यवीर सद्धर्मसंरक्षक श्री बुद्धिविजय (बूटेराय ) ' जो भगवान महावीर के वास्तविक जैनधर्म को पंजाब में पुनः प्रकाश में लाये । इस प्रकार लगभग दो शताब्दियों के अन्तराल में लुप्तप्रायः हो गये प्राचीन जैन श्वेतांबर ( मूर्तिपूजक) धर्म को प्रकाश में लाने में आप को एकाकी अनेक उपसर्ग और परिषह सहन करने पड़े तो भी भ्रापके कदम डगमगाये नहीं और सद्धर्म प्रचार में डटे ही रहे तथा सफल भी हुए | पश्चात् प्रापके ही शिष्य न्यायांभोनिधि जैनाचार्य श्री विजयानन्द सूरि (प्रसिद्ध नाम श्रात्माराम) जी महाराज ने श्रापके रहे हुए अधूरे कार्य को पूरा करके सारे पंजाब में जैनधर्म का डंका बजाया । इन गुरु शिष्य ने सारे पंजाब में जगह-जगह पुराने जैनमंदिरों का जीर्णोद्धार तथा जहाँजहाँ प्रावश्यकता थी, उन-उन नगरों में जैनमंदिरों का निर्माण तथा प्रतिष्ठायें कराईं। पंजाब के अनेक नगरों में जैन शास्त्रभंडारों की स्थापना कराई और हज़ारों परिवारों को सत्यधर्म का प्रनृयायी बनाकर उन मंदिरों में पूजा-भक्ति करके ग्रात्मकल्याण की साधना के लिए उपासक बनाया । अनेक ग्रंथों की हिन्दी भाषा में रचनाएं की, व्यवहारिक और धार्मिक शिक्षण पाने का सुश्रवसर प्रदान किया। पंजाब के समस्त श्वेताम्बर जैनसंघ को सुसंगठित रखने केलिए श्री आत्मानन्द जैन महासभा (पंजाब- उत्तरीभारत) की स्थापना की और प्रत्येक नगर में इसकी शाखायें श्री
1. भूना ऋषि कामत के प्रथम यति तथा ४४ साथियों के साथ प्रथम अनुयायी थे । 2. रायमल्ल तथा भल्लो जी ये दोनों गुरुभाई वि० सं० १५६० में पंजाब (लाहौर) में श्राए । 3. देखे वि० सं० १८८७ मघर सुदि ८ वार सोम सुधासर (अमृतसर) पंजाब में लिखी हुई गुरवावली (यह गुरवावली वल्लभ स्मारक शास्त्रभंडार दिल्ली में सुरक्षित है ) ।
4. मुनि बुद्धिविजय जी पंजाब के सिख जाट थे। आपने वि० सं० १८८८ में ढूंढक मत की साधु दीक्षा ली। पश्चात् वि० सं० १९९२ में संवेगी दीक्षा ग्रहण की। ( विशेष देखें श्रापका जीवन चरित्र सद्धर्म संरक्षक- इस ग्रंथ के लेखक द्वारा लिखित | )
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