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वीर परम्परा का प्रखंड प्रतिनिधित्व
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हम उपर देख पाये हैं कि दिगम्बर फिरके ने असली धार्मिक साहित्य की प्रवगणना में, उसके वहिष्कार करने में. बनावटी बतालने में मात्र विद्या के कई अंशों से वंचित होने की ही भूल नहीं की है। परन्तु इसको इसके साथ वीरपरम्परा के बहुत प्राचारों और विचारों से भी हाथ धोने पड़े हैं । आगमिक साहित्य छोड़ने के साथ इसके हाथ में से पंचाँगी के प्रवाह को सुरक्षित रखने, रचना करने तथा पोषण करने का सुनहरी अवसर ही छिन गया । यह तो एक निराबाध सत्य है कि मध्यकाल में कई शताब्दियों तक माननीय दिगम्बर गम्भीर विद्वानों के हाथ से रचा गया दार्शनिक, ताकिक और अन्य प्रकार का विविध साहित्य ऐसा है जो मात्र प्रत्येक जैन को ही नहीं किंतु प्रत्येक भारतीय और संस्कृति के अभ्यासी को गौरव उत्पन्न करे, ऐसा है। ऐसा होने पर भी ऐतिहासिक दृष्टि से मानना पड़ेगा कि यदि दिगम्बर परम्परा ने आगमिक पौर पंचांगी साहित्य को सुरक्षित, सवधित और व्याख्यायान के विवरण का अपने ही ढब से किया होता तो इस परम्परा के गम्भीर विद्वानों ने भारतीय और जैन साहित्य को एक सम्मानवर्षक भेंट दी होती, जो हो । इस पर से मेरा अभिप्राय केवल ऐतिहासिक दृष्टि से यह बना है कि शास्त्रों की बावत में वीरपरम्परा का जो कोई भी प्रखण्ड प्रतिनिधित्व आज देखने में आता है वह श्वेतांबर परम्परा को आभारी है । जब मैं दिगम्बर परम्परा की पुष्टि और उसके समन्वय की दृष्टि से भी श्वेतांबरीय पंचाँगी साहित्य को देखता हूं तब मुझे स्पष्ट लगता है कि इस साहित्य में दिगम्बर परम्परा की पोषक अखूट सामग्री है । प्रामुक मुद्दों के प्रति मतभेद होने पर भी उसे एकान्तिक प्राग्रह का रूप देने से जो हानि दिगम्बर परम्परा को उठानी पड़ी है उसका ख्याल इस पंचाँगी साहित्य को तटस्थ भाव से मनन-चितन किये बिना नहीं पा सकता है । यदि इस साहित्य के अमुक विधान दिगम्बर परम्परा के अनुकल न होते तो इस परम्परा के विद्वान इन विधानों के विषय में इस साहित्य को छोड़े बिना भी जैसे ब्राह्मणों और बौद्ध परम्परा में बना है तथा जैसे एक ही तत्त्वार्थ ग्रंथ को अपनाकर इसकी जुदा-जुदा व्याख्याएं की गई हैं वैसे-विविध उहापोह की जा सकती थी । अथवा उस भाग को, स्वामी दयानन्द ने स्मृति पुराण आदि में जो अनिष्ट भाग को प्रक्षिप्त कहकर बाकी के समग्र पंचाँगी भाग को स्वीकार करके परम्परा के प्रतिनिधित्व के मूल रूप में कुछ विशेष रूप से सुरक्षित रख सका होता । दिगम्बर परम्परा का समग्र मानस एकांगी घड़ा दिखलाई देता है कि उसे जिज्ञासा और विद्योपासना की दृष्टि से भी पंचाँगी साहित्य को देखने की वृत्ति होती ही नहीं। जबकि श्वेतांबरीय मानस प्रथम से ही उदार रहा है। इसके प्रमाण हम इसकी साहित्य रचना में बराबर देख पाते हैं । एक भी दिगम्बर विद्वान ऐसा दिखलाई नहीं पड़ता कि जिसने ब्राह्मण-बौद्ध ग्रंथो पर लिखने की बात तो अलग रही, पर श्वेतांबरीय प्रागमिक साहित्य पथवा दूसरे किसी दार्शनिक या ताकिक श्वेतांबरीय साहित्य पर कुछ लिखा हो । इससे विपरीत दिगम्बर परम्परा का प्रवल खंडन करने वाले अनेक श्वेतांबरीय प्राचार्य और गम्भीर विद्वान ऐसे
(७) इन लेखों से यह बात भी नि:संदेह सिद्ध हो जाती है कि उस समय श्वेतांबर जैनों की वृद्धि उन्नति खूब थी।
(5) मथुरा के इन सब लेखों से यह भी स्पष्ट है कि उस समय मथुरा शहर में बसने बाले जैन लोग श्वेतांबर जैन धर्मानुयायी थे (प्राचार्य विजयानन्द सूरि कृत जैनधर्म विष यक प्रश्नोत्तर पुस्तक)।
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