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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
दूसरी परम्परा के उत्कर्ष की दृष्टि से नहीं लिखा । मेरा यह प्रस्तुत लेख मात्र सत्य की दृष्टि से है । पर किसी के प्रति अवगणना अथवा लघुता की दृष्टि के पोषण का इसमें अवकाश नहीं है।
अद्भुत शिल्प का तीर्थ ईस्वी० पूर्व दूसरी शताब्दि से लेकर ईसा के बाद ग्यारहवीं शताब्दि तक के शिलालेख और शिल्प के उदाहरण इन देवमन्दिरों से मिले हैं । लगभग १३०० वर्षों तक जैनधर्म के अनुयायी यहां पर चित्र-विचित्र शिल्प की सृष्टि करते रहे। इस स्थान से प्रायः सो शिलालेख, और डेढ हजार के करीब पत्थर की मूर्तियाँ मिल चुकी हैं। प्राचीन भारत में मथुरा का स्तूप जैनधर्म का सबसे बडा शिल्पतीर्थ था। यहां के भव्य देव-प्रासाद, उनके सुन्दर तोरण, वेदिकास्तम्भ, मूर्धन्य या उष्णीष पत्थर, उत्फुल्ल कमलों से सज्जित सूची, उत्कीर्ण पायागपट्ट तथा अन्य शिलापट्ट, सर्वतोभद्रिका प्रतिमाएं, स्तूप-पूजा का चित्रण करनेवाले स्तम्भतोरण आदि अपनी उत्कृष्ट कारीगरी के कारण आज भी भारतीय कला के गौरव समझे जाते हैं । सिंहक नामक वणिक के पुत्र सिंहनादिक ने जिस आयागपट्ट की स्थापना की थी वह अविकल रूप में आज भी लखनऊ के संग्रहालय में सुशोभित है। चित्रण-सौष्ठव और मान-सामंजस्य में इसकी तुलना करनेवाला एक भी शिल्प का उदाहरण इस देश में नहीं है। बीच के चतुरस्रस्थान में चार नन्दिपदों से घिरे हुए मध्यवर्ती कुण्डल में समाधिमुद्रा में पद्मासन से भगवान् अर्हत् विराजमान हैं। ऊपर नीचे प्रष्ट मांगलिक चिन्ह और पार्श्वभागों में दो स्तम्भ उत्कीर्ण हैं, दक्षिण स्तम्भ पर चक्र सुशोभित है और वाम पर एक गजेन्द्र । प्रायागभट्ट के चारों कोनों में चार चतुर्दल कमल हैं। इस मायागपट्ट में जो भाव व्यक्त किए गए हैं उनकी अध्यात्म-व्यंजना अत्यन्त गम्भीर है । इसी प्रकार माथुरक लवदास की भार्या का प्रायागपट्ट जिसमें षोडश आरेवाले चक्र का दुर्धर्ष प्रवर्तन चित्रित है, मथुराशिल्प का मनोहर प्रतिनिधि है। फल्गुयश नर्तक की भार्या शिवयशा के सुन्दर प्रायागपट्ट को भी हम न है भूल पाते।
कंकाली टीले के अनन्त वेदिका स्तम्भों और सूची- दलों की सजावट का वर्णन करने के लिए तो कवि की प्रतिभा चाहिए। आभूषण-संभारों से सन्नतांगी रमणियों के सुखमय जीवन का अमर वाचन एकबार ही इन स्तम्मों के दर्शन से सामने आजाता है। अशोक, बकुल, आम्र पौर चम्पक के उद्यानों में पुष्पमंजिका क्रीडा में प्रसक्त, कन्दुक, खड्गादि नृत्यों के अभिनय में प्रवीण, स्नान और प्रसाधन में संलग्न पौरांगनाओं को देखकर कौन मुग्घ हुए बिना रह सकता है ? भक्तिभाव से पूजा के लिए पुष्पमालाओं का उपहार लाने वाले उपासक वृन्दों की शोभा और भी निराली हैं। सुपर्ण और किन्नर सदृश देवयोनियाँ भी पूजा के इन श्रद्धामय कृत्यों में बराबर माग लेती हुई दीखाई गई हैं । मथुरा के इस शिल्प की महिमा केवल भावगम्य है ।
श्रावक-श्राविकाएं तथा उनके प्राचार्य मथुग के शिलालेखों से मिलि हुई सामग्री से पता चलता है कि जैन समाज में स्त्रियों को बहुत ही सम्मानित स्थान प्राप्त था। अधिकांश दान और प्रतिमा-प्रस्थापना उन्हीं की श्रद्धा-भक्ति का फल थी। सब मत्त्वों के हितसुख के लिए [सर्वसत्त्वानां हितसुखाय] और अहंत पूजा के लिये
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