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वीर परम्परा का प्रखण्ड प्रतिनिधित्व
बहुत संकीर्ण रहा है । इस के प्रमाण पुराने समय से लेकर आज तक की दोनों फिरकों के शास्त्र भण्डारों की सूचियों से पद-पद पर मिलते है । मैंने यह लेख किसी एक परम्परा के अपकर्ष अथवा
वलंबियों का हो । जैन बांगमय में ऋषभदेव के काल से लेकर आज तक जैन स्तूपों के निर्माण के उल्लेख पाये जाते हैं । हमारी सम्मति में देवनिर्मित शब्द साभिप्राय है और इस स्तूप की अतिशय प्राचीनता को सिद्ध करता है । तिब्बतीय विद्वान् तारानाथ ने अशोककालीन तक्षकों और शिल्पियों को यक्षों के नाम से पुकारा है कि मौर्यकालीन शिल्पकला यक्षकला है । उससे पूर्व युग की कला देवनिर्मित थी । अतएव शिलालेख का देवनिर्मित शब्द यह संकेत करता है कि मथुरा का स्तूप मौर्यकाल से पहले अर्थात् लगभग छट्ठी या पांचवी शताब्दि ईस्वी पूर्व में बना होगा। जैन विद्वान् जिनप्रभ द्वारा रचित तीर्थकल्प किंवा राजप्रासाद ग्रंथ में मथुरा के इस स्तूप के निर्माण
और जीर्णोद्धार का इतिहास दिया हुआ है । उसके आधार पर बूलर ने A legend of the Jain stupa at Mattura नामक निबन्ध लिखा था। उसने कहा है कि मथुरा का स्तूप, आदि में सुवर्णमय था, जिसे कुबेरा नामकी देवी ने सप्तम तीर्थंकर सुपार्श्व की स्मृति में (उनके समय में) बनवाया था । कालान्तर में तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ जी के समय में इसका निर्माण ईटों से हुमा । (पार्श्वनाथ केवली अवस्था में मथुरा पधारे थे।) भगवान् महावीर की सम्बोधी के १३०० वर्ष बाद बप्पभट्टिसूरि ने इसका जीर्णोद्धार कराया। इस प्राधार पर डॉ० स्मिथ ने जैन स्तूप नामक पुस्तक में यह लिखा है :
"Its original erection in brick in the time of Parsvanath, the predecessor of Mahavir, would fall at a date not later than B.C. 600. Considering the significance of the phrase in the inscription "built by the Gods” as indicating that the building at about the beginning of the Christian era was believed to date from a period of mythical antiquity, the date B. C. 600 for its first erection is not too early. probably, therefore, this stupa, of which Dr. Fuhrer exposed the foundations, is the oldest known building in India.”
इस उद्धरण का भावार्थ यही है कि अनुश्रुति की सहायता से मथुरा के प्राचीन जैन स्तूप का निर्माण काल लगभग छठी शताब्दि ई० पूर्व का प्रारम्भकाल था और इसी कारण यह भारतवर्ष में प्राप्त स्तूपों में से सबसे पुराना स्तूप था । (इसी प्रकार भारत में सर्वत्र जैन स्तुप विद्यमान होने चाहिए जिन्हें पुरातत्त्ववेत्तानों तथा इतिहासवेताओं ने बौद्धों आदि के लिखकर जैन इतिहास से खिलवाड़ की है)।
बौद्ध स्तूप के सामने दो विशाल देव-प्रासाद थे। इनमें से एक मन्दिर का तोरण [प्रासादतोरण] प्राप्त हुअा था । इसे महारक्षित प्राचार्य के शिष्य उत्तरदासिक ने बनवाया था। इसके लेख के [E. I. Vol. II, Ins. no. I] अक्षर भारहूत के तोरण पर खुदे हुए लगभग १५० ई०पू० के धनभूति के लेख के अक्षरों से भी अधिक पुराने हैं; अतएक विद्वानों की सम्मति में इन मंदिरों का समय ईस्वी० पूर्व तीसरी शताब्दि समझा गया है ।
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